Friday, February 24, 2017

राम,कृष्ण और शिव

Jayram Shukla <jairamshuklarewa@gmail.com>

Lohiya

Jayram Shukla<jairamshuklarewa@gmail.com>Fri, Feb 24, 2017 at 6:32 PM

राम और कृष्ण और शिव हिंदुस्तान के उन तीन नामों में हैं- मैं उनको आदमी कहूं या देवता, इसके तो कोर्इ खास मतलब नहीं होंगे- जिनका असर हिंदुस्तान के दिमाग पर ऐतिहासिक लोगों से भी ज्यादा है। गौतम बुद्ध या अशोक ऐतिहासिक लोग थे। लेकिन उनके काम के किस्से इतने ज्यादा और इतने विस्तार में आपको नहीं मालूम हैं, जितने कि राम और कृष्ण और शिव के किस्से। कोर्इ आदमी वास्तव में हुआ या नहीं, यह इतना बड़ा सवाल नहीं है, जितना यह कि उस आदमी के काम किस हद तक, कितने लोगों को मालूम हैं, और उनका क्या असर है दिमाग पर। राम और कृष्ण तो इतिहास के लोग माने जाते हैं, हों या न हों, यह दूसरे दर्जे का सवाल है। मान लें थोड़ी देर के लिए, वे सिर्फ उपन्यास के लोग हैं। शिव तो केवल एक किंवदंती के रूप में प्रचलित हैं। यह सही है कि कुछ लोगों ने कोशिश की है कि शिव को भी कोर्इ समय और शरीर और जगह दी जाए। कुछ लोगों ने कोशिश की है यही साबित करने की कि वे उत्तराखंड के एक इंजीनियर थे जो गंगा को ले आये थे हिंदुस्तान के मैदान में। यह छोटे-मोटे सवाल हैं कि राम और कृष्ण और शिव सचमुच इस दुनिया में कभी हुए या नहीं। असली सवाल तो यह है कि इनकी जिंदगी के किस्सों के छोटे-छोटे पहलू को भी पांच, दस, बीस, पचास हजार आदमी नहीं, बलिक हिंदुस्तान के करोड़ों लोग जानते हैं। यह हिंदुस्तान के इतिहास के किसी और आदमी के बारे में नहीं कहा जा सकता। मैं तो समझता हूं, गौतम बुद्ध का नाम भी हिंदुस्तान में शायद पचीस सैकड़ा से ज्यादा लोगों को मालूम नहीं होगा। उनके किस्से जानने वाले तो मुशिकल से हजार में एक-दो मिल जाएं तो मिल जाएं लेकिन राम और कृष्ण और शिव के नाम और उनके किस्से तो सबको मालूम हैं। गंगदत्त इतना बेवकूफ नहीं है कि अब फिर से कुएं में आए, क्योंकि भूखे लोगों का कोर्इ धर्म नहीं हुआ करता है। 'हितोपदेश और 'पंचतंत्र के इन किस्सों से करोड़ों बच्चों के दिमाग पर कुछ चीजें खुद आया करती हैं और उसी पर नीतिशास्त्र बना करता है। मैं जिनका जिक्र आज कर रहा हूं, वे ऐसे किस्से नहीं हैं। उनके साथ नीतिशास्त्र सीधे नहीं जुड़ा हुआ है। ज्यादा से ज्यादा आप यह कह सकते हो कि किसी भी देश की हंसी और सपने ऐसे महान किंवदंतियों में खुदे रहते हैं। हंसी और सपने, इन दो से और कोर्इ बड़ी चीज दूुनिया में नहीं हुआ करती है। जब कोर्इ राष्ट्र हंसा करता है तो वह खुद होता है, उसका दिल चौड़ा होता हैै और जब कोर्इ राष्ट्र सपने देखता है, तो वह अपने आदर्शों में रंग भर कर किस्से बना लिया करता है। राम कृष्ण और शिव कोर्इ एक दिन के बनाये हुए नहीं हैं। इनको आपने बनाया। इन्होंने आपको नहीं बनाया। आम तौर से तो आप यही सुना करते हो कि राम और कृष्ण और शिव ने हिंदुस्तान या हिंदुस्तानियों को बनाया। किसी हद तक, शायद यह बात सही भी हो, लेकिन ज्यादा सही बात हो कि करोड़ों हिंदुस्तानियों ने, युग-युगांतर के अंतर में, हजारों बरस में, राम कृष्ण और शिव को बनाया। उनमें अपनी हँसी और सपने के रंग भरे और तब राम और कृष्ण और शिव जैसी चीजें सामने हैंं। राम और कृष्ण तो विष्णु के रूप हैं, और शिव महेश के। मोटी तौर से लोग यह समझ लिया करते हैं कि राम और कृष्ण तो रक्षा या अच्छी चीजों की हिफाजत के प्रतीक हैं, और शिव विनाश या बुरी चीजों के नाश के प्रतीक हैं। मुझे ऐसे अर्थ में नहीं पड़ना है। कुछ लोग हैं जिन्हें मजा आता है हरेक किस्से में अर्थ ढंूढ़ने में। मैं अर्थ ढ़ूँढ़ूँगा। मुमकिन है सारा कहना बेमतलब हो, और जितना बेमतलब होगा उतना ही मैं उसे अच्छा समझूगाँ, क्योंकि हँसी और सपने तो बेमतलब हुआ करते हैं। फिर भी, असर उनका कितना पड़ता है? छाती चौड़ी होती है। अगर कोर्इ कौम अपनी छाती मौके-मौके पर ऐसी किंवदंतियों को याद करके चौड़ी कर लेती हो तो फिर उससे बढ़ कर क्या हो सकता है? कोर्इ यह न सोचे कि इस विषय से मैं कोर्इ अर्थ निकालना चाहता हूँ- राजनीतिक अर्थ या दार्शनिक अर्थ या और कोर्इ समाज के गठन का अर्थ। जहाँ तक बन पडे़, पिछले हजारों बरसों में जो हमारे देश के पुरखों और हमारी कौम ने इन तीनों किंवदंतियों में अपनी बात डाली है, उसको सामने लाने की कोशिश करूंँगा। राम की सबसे बड़़ी महिमा उनके उस नाम से मालूम होती है, जिसमें कि उन्हें मर्यादा पुरूषोत्तम कह कर पुकारा जाता है। जो मन में आया सा नहीं कर सकते । राम की ताकर बँधी हुर्इ है, उसका दायरा खिंचा हुआ है। राम की ताकत पर कुछ नीति की शास्त्र की या धर्म की या व्यवहार की या, अगर आप आज की दुनिया का एक शब्द ढ़ूँढे ंतो विधान की मर्यादा हैं। जिस तरह से किसी भी कानून की जगह, जैसे विधान सभा या लोक सभा पर विधान रोक लगा दिया करता है, उसी तरह से राम के कामों पर रोक लगी हुर्इ है। यह रोक क्यों लगी हुर्इ हैं और किस तरह की है, इस बात में अभी आप मत पडि़ए। लेकिन इतना कह देना काफी होगा कि पुराने दकियानूसी लोग भी जो राम और कृष्ण को विष्णु का अवतार मानते हैं, राम को तो सिर्फ आठ कलाओं का अवतार मानते हैं और कृष्ण को सोलह कलाओं का अवतार। कृष्ण संपूर्ण और राम अपूर्ण! अपूर्ण शब्द सही नहीं होगा, लेकिन अपना मतलब बताने के लिए मैं इस शब्द का इस्तेमाल किये लेता हूँ। ऐसे मामलों में, कोर्इ अपूर्ण और संपूर्ण नहीं हुआ करता, लेकिन जाहिर है, जब एक में आठ कलाएँ होंगी और दूसरे में सोलह कलाएँ होंगी, तो उससे कुछ नतीजे तो निकल ही जाया करेंगे। 'भागवत में एक बड़ा दिलचस्प किस्सा है। सीता खोयी थी तब राम को दु:ख हुआ था। दुख जरा ज्यादा हुआ। किसी हद तक मैं समझ भी सकता हूँ, गो कि लक्ष्मण भी वहां पर था और देख रहा था। इसलिए राम का पेड़ों से बात करना और रोना वगैरह कुछ ज्यादा समझ में नहीं आता। अकेले अगर राम रो लेते, तो बात दूसरी थी, लेकिन लक्ष्मण के देखते हुए, पेड़ से बात करना और रोना वगैरह, जरा ज्यादा आगे बढ़ गयी बात। कौन जाने, शायद, वाल्मीकि और तुलसीदास को यही पसंद रहा हो। लेकिन याद रखना चाहिये कि वाल्मीकि और तुलसीदास में भी फर्क है। वाल्मीकि की सीता और तुलसीदास की सीता, दोनों में बिल्कुल दो अलग-अलग दुनिया का फर्क है। अगर कोर्इ इस पर भी एक किताब लिखना शुरू करे कि सीता हिंदुस्तान में तीन चार हजार बरस के दौरान में किस तरह बदली, तो वह बहुत ही दिलचस्प किताब होगी। अभी तक ऐसी किताबें लिखी नहीं जा रही हैं, लेकिन लिखी जानी चाहिए। खैर राम रोये, पेड़ों से बोले, दुखी हुए, और वक्त चंद्रमा हँसा था। जाने क्यों चंद्रमा को ऐसी चीजों में दिलचस्पी रहा करती है कि वह हँसा करता है, ऐसा लोग कहते हैं। वह खूब हँसा। कहा, देखो तो सही, पागल कैसे रो रहा है। राम विष्णु के अवतार तो थे ही, चाहे आठ कला वाले।विष्णु को बात याद थी। न जाने कितने बरसों के बाद कुछ लोग कहते हैं, लाखों बरसों के बाद, हजारों बरसों के बाद, लेकिन मेरी समझ में शायद हजार दो हजार बरस के बाद-जब कृष्ण के रूप में वे आये तो फिर एक दिन, हजारों गोपियों के बीच में कृष्ण ने भी अपनी लीला रचार्इ। वे 16,000 थीं या 12,000 थीं, इसका मुझे ठीक अंदाज नहीं। एक-एक गोपी के अलग-अलग से, कृष्ण सामने आये और बार-बार चंद्रमा की तरफ देख कर ताना मारा, बोले, अब हँसों। जो चंद्रमा राम को देख कर हँसा था जब राम रोये थे, उसी चंद्रमा को उँगली दिखा कर कृष्ण ने ताना मारा कि अब जरा हँसों, देखो तो सही। सोलह कला और आठ कला का यह फर्क रहा। राम ने मनुष्य की तरह प्रेम किया। मैं इस समय इस बहस में बिल्कुल नहीं पड़ना चाहता कि सचमुच कृष्ण ने ऐसा किया या नहीं किया। यह बिल्कुल फिजूल बात है। मैं शुरू में ही कह चुका हूँ ऐसी कहानियों का असर ढँ़ूढ़ा जाता है, यह देख कर नहीं कि वे सच्ची हैं या झूठी, लेकिन यह देख कर उनमें कितना सच भरा हुआ है, और दिमाग पर उनका कितना असर पड़ता है। यह सही है कि कृष्ण ने प्रेम किया, और ऐसा प्रेम किया कि बिल्कुल बेरोये रह गये, और तब चंद्रमा को ताना मारा।राम रोये तो चंद्रमा ने विष्णु को ताना मारा; कृष्ण 16,000 गोपियों के बीच में बाँसुरी बजाते रहे, तो चंद्रमा को विष्णु ने ताना मारा। ये किस्से मशहूर हैं। इसी से आप और नतीजे निकालिए। कृष्ण झूठ बोलते हैं, चोरी करते हैं, धोखा देते हैं, और जितने भी अन्याय के, अधर्म के काम हो सकते हैं, वे सब करते है। जो कृष्ण के सच्चे भक्त होंगे, मेरी बात का बिल्कुल भी बुरा न मानेंगे। मुमकिन है कि एकाध नकली भक्त गुस्सा कर जाएं। एक बार जेल में मेरा साथ पड़ा था मथुरा के एक बहुत बड़े चौबे जी से और मथुरा तो फिर मथुरा ही है। जितना ही हम उनको चिढ़ाना चाहें, वे खुद अपने आप कह दें कि हाँ, वह तो माखनचोर था। कोर्इ क्या करे ऐसे आदमी को। हम कहें कृष्ण चोर था, वह कहें, हाँ, वह तो मााखनचोर था। हम कहें कृष्ण धोखेबाज था, तो वे जरूर कृष्ण को कोर्इ न कोर्इ झूठ दगा और धोखेबाजी और लम्पटपन को याद करके। सो क्यों? 16 कला हैं। मर्यादा नहीं, सीमा नहीं, विधान नहीें है, यह ऐसी लोकसभा है जिसके ऊपर विधान की कोर्इ रूकावट नहीं है, मन में आए सो करे। धर्म की विजय के लिए अधर्म से अधर्म करने को तैयार रहने का प्रतीक कृष्ण हैं। मैं यहाँ तो किस्से नहीं बतलाऊँगा, पर आप खुद याद कर सकते हो कि कब सूरज को छुपा दिया जब कि वह सचमुच नहीं छुपा था, कब एक जुमले के आधे हिस्से को जरा जोर से बोल कर और दूसरे हिस्से को धीमे बोल कर कृष्ण झुठ बोल गये। इस तरह की चालबाजियाँ तो कृष्ण हमेशा ही किया करते थे। कृष्ण सोलह कलाओं का अवतार, किसी चीज की मर्यादा नहीं। राम मर्यादित अवतार, ताकत के ऊपर सीमा जिसे वे उलाँघ नहीं सकते थे। कृष्ण बिना मर्यादा का अवतार। लेकिन इसके यह मानी नहीं कि जो कोर्इ झूठ बोले और धोखा करे वही कृष्ण हो सकता है। अपने किसी लाभ के लिए नहीं, अपने किसी राग के लिए नहीं। राग शब्द बहुत अच्छा शब्द है हिंदुस्तान का। मन के अंदर राग हुआ करते हैं, राग चाहे लोभ के हों, चाहे क्रोध के हों, चाहे र्इष्र्या के हों, राग होते हैं। तो यह सब, बीतराग, भय, क्रोध, जिसकी चर्चा हमारे कर्इ ग्रंथों में मिलती हैं, भय, क्रोध, राग से परे। धोखा, झूठ, बदमाशी और लम्पटपन कृष्ण का, एक ऐसे आदमी का था जिसे अपना कोर्इ फायदा नहीं ढ़ूँढ़ना था, जिसे कोर्इ लोभ नहीं था, जिसे र्इष्र्या नहीं थी। जिसे किसी के साथ जलन नहीं थी, जिसे अपना कोर्इ बढ़ावा नहीं करना था। यह चीज मुमकिन है या नहीं, इस सवाल को आप छोड़ दीजिए। असल चीज है, दिमाग पर असर कि यह संभव है या नहीं। हम लोग इसे संभव मानते भी हैं, और मैं खुद समझता हूँ कि अगर पूरा नही ंतो अधूरा, किसी न किसी रूप में यह चीज संभव है। कभी-कभी, आज के जमाने में भी राम और कृष्ण की तस्वीरें हिंदुस्तान के बड़े लोगों को समझते हुए आपकी आँखों के सामने नाचा करती होंगी। न नाचती हों तो अब आगे से नाचेंगी। एक बार मेरे दोस्त ने कहा था, गाँधी जी के मरने पर कि साबरमती या काठियावाड़ की नदियों का बालक जमुना के किनारे जलाया गया, और जमुना का बालक काठियावाड़ की नदियों के किनारे जलाया गया था। फासला दोनों में हजारों बरस का है। काठियावाड़ की नदियों का बालक और जमुना नदी का बालक, दोनों में शायद, इतना संबंध न दीख पाता होगा। मुझे भी नहीं दीखता था, कुछ अरसे पहले तक, क्योंकि गाँधी जी ने, खुद राम को याद किया और हमेशा याद किया। जब कभी गाँधी जी ने किसी नाम को लिया, तो राम का लिया। कृष्ण का नाम भी ले सकते थे। और शिव का नाम भी ले सकते थे वे। लेकिन नहीं। उन्हें एक मर्यादित तस्वीर हिंदुस्तान के सामने रखनी थी, एक ऐसी ताकत जो अपने ऊपर नीति, धर्म या व्यवहार की रूकावटों को रखे-मर्यादा पुरूषोत्तम का प्रतीक। मैंने भी सोचा था, बहुत अरसे तक, कि शायद गाँधी जी के तरीके कुछ मर्यादा के अंदर रह कर ही हुए। ज्यादातर यह बात सही भी है लेकिन पूरी सही भी नहीं है। और यह असर दिमाग पर तब पड़ता है जब आप गाँधी जी के लेखों और भाषणों को एक साथ पढ़ें। अंग्रेजों और जर्मनों की लड़ार्इ के दौरान में हर हफ्ते 'हरिजन में उनके लेख या भाषण छपा करते थे। हर हफ्ते उनकी जो बोली निकलती थी, उसमें इतनी ताकत और इतना माधुर्य होता कि मुझ जैसे आदमी को भी समझ में नहीं आता था कि बोली शायद, बदल रही है हर हफ्ते। बोली तो खैर हमेशा बदला करती है, लेकिन उसकी बुनियादें भी बदल गयींं ऐसा लगता था कृष्ण अपनी बोली की बुनियाद बदल दिया करते थे, राय नहीं बदलते थे ंकुछ महीने पहले का किस्सा है कि एकाएक मैंने, लड़ार्इ के दिनों में गाँधी जी ने जो कुछ लिखा था, हर हफ्ते से लगातार, दसमें से छ: महीनों की बातें एक साथ जब पढ़ी, तब पता चला कि किस तरह बोली बदल जाती थी। जिस चीज को आज अहिंसा कहा, उसी को दो-तीन महीने बाद हिंसा कह डाला और उसका उलटा, जिसे हिंसा कहा, उसे अहिंसा कह डाला। वक्ती तौर पर अपने संगठन के नीति-नियमों के मुताबिक जाने के लिये और अपने आदमियों की मदद पहुँचाने के लिए बुनियादी सिद्धांतों के बारे में भी बदलाव करने के लिए वे तैयार रहते थे। यह किया उन्होंने, लेकिन ज्यादा नहीं किया। मैं यह कहना चाहूँगा कि गाँधी जी ने कृष्ण का काम बहुत ज्यादा किया, लेकिन काफी किया। इससे कहीं यह न समझना कि गाँधी जी मेरी नजरों में गिर गये, कृष्ण मेरी नजरों में कहाँ गिर गयें ये तो ऐसी चीजें हैं जिनका सिर्फ सामना करना पड़ता है। गिरने-गिराने का तो कोर्इ सवाल है नहीं। लेकिन यह कि आदमी को अपनी कसौटियाँ हमेशा पैनी और साफ रखनी चाहिए कि जिससे पता चल सके कि जिस किसी चीज को उसने आदर्श बनाया है या जिन सिद्धांतों को अपनाया है, उन्हें वह सचमुच लागू किया करता है या नहीं। जैसे, साधनों की शुचिता या जिस तरह के मकसद हों, उसी तरह के तरीके हों, इन सिद्धांत को गाँधी जी ने न सिर्फ अपनाया बलिक बार-बार दुहराया। शायद इसी को उन्होंने अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा मकसद समझा कि अगर मकसद अच्छे बनाने हैं तो तरीके भी अच्छे बनाने पड़ेंगे। लेकिन आपको याद होगा कि किस तरह बिहार के भूकंप को अछूत प्रथा का नतीजा बता कर उन्होंने एक अच्छा मकसद हासिल करना चाहा था कि हिंदुस्तान से अछूत-प्रथा खत्म हो। बहुत बढि़या मकसद था, इसमें कोर्इ शक नहीं। उन दिनों जब रवीन्द्रनाथ ठाकुर और महात्मा गाँधी में बहस हुर्इ थी, तो मुझे एकाएक लगा कि रवींद्रनाथ ठाकुर क्यों यह तीन-पाँच कर रहे हैंं आखिर गाँधी जी कितना बड़ा मकसद हासिल कर रहे हैं। जाति-प्रथा मिटाना, हरिजन और अछूत-प्रथा मिटाना, इससे बड़ा और मकसद हो सकता है। लेकिन उस मकसद को हासिल करने के लिए कितनी बड़ी झूठ बोल गये कि बिहार का भूकंप हुआ इसलिए कि हिंदुस्तानी लोग आपस में अछूत प्रथा चलाते हैं। भला भूकंप और तारे और आसमान, पानी और सूरज वगैरह को भी इससे क्या पड़ा हुआ है कि हिंदुस्तान में अछूत प्रथा चलती है या नहीं चलती है। मैं, इस समय, बुनियाद तौर से राम और कृष्ण के बीच इस फर्क को सामने रखना चाहता हूँ कि एक तो मर्यादा पुरूषोत्तम है, एक की ताकतों के ऊपर रोक है, और दूसरा बिना रोक का, स्वयंभू है। यह सही है कि वह राग से परे है, राग से परे रह कर सब कुछ कर सकता है और उसके लिए कोर्इ नियम और उपनियम नहीं। शिव एक निराली अदा वाला है। दुनिया भर में ऐसी कोर्इ किंवदंती नहीं जिसकी न लंबार्इ है न चौड़ार्इ और मोटार्इ। एक फ्रांसिसी नहीं है। यानी ऐसी डाइमेंशनल मिथ है, (अँग्रेजी शब्द है, फ्राँसिसी नहीं) यानी ऐसी किंवदंती जिसकी कोर्इ सीमा नहीं है, जिसकी कोर्इ हदें नहीं हैं- न लंबार्इ, न चौड़ार्इ, न मोटार्इ। किंवदनितयाँ दुनिया में और जगह भी हैं, खास तौर से पुराने मुल्कों में जैसे फ्राँस आदि में हैं। कहाँ नहीं हैं? बिना किंवदनितयों के कोर्इ देश रहा ही नहीं, और जितने पुराने देश हैं उनमें किंवदनितयाँ ज्यादा हैं। मैंने शुरू में कहा था कि एक तरफ 'हितोपदेश और 'पंचतंत्र की गंगदत्त और प्रियदर्शन जैसी बच्चों की कहानियाँ है, तो दूसरी तरफ, हजारों बरस के काम के नतीजे के स्वरूप कुछ लोगों में कौम की हँसी और सपने भरे हुए हैं, ऐसी किंवदनितयाँ हैं। शिव ही एक ऐसी किंवदंती हैं जिसके न आगा है न पीछा। यहाँ तक कि वह किस्सा मशहूर है कि जब ब्रह्राा और विष्णु आपस में लड़ गये-ये देवी-देवता खूब लड़ा करते हैं, कभी-कभी आपस में-तो शिव ने उनसे कहा, लड़ो मत। जाओ तुममें से एक मेरे सिर का पता और दूसरा मेरे पैर का पता लगाए और फिर लौट कर आ कर मुझसे कहो। जो पहले पता लगा लेगा, उसकी जीत हो जाएगी। दोनों पता लगाने निकले। शायद अब तक पता लगा रहे हों। जो ऐसे किस्से-कहानियाँ गढ़ा करते हैं उनके लिए वक्त का कोर्इ मतलब नहीं रहता है। उनके लिए एक मिनट के मानी एक करोड़ बरस। कोर्इ हिसाब और गणित वगैरह का सवाल नहीं उठता उनके सामने। खैर, किस्सा यह है कि बहुत अरसे तक बाद, न जाने कितने लाखों बरस के बाद ब्रह्राा और विष्णु दोनों लौट कर आये और शिव से बोले कि भर्इ, पता तो नहीं लगा। तब उन्होंने कहा कि फिर क्यों लड़ते हो, फिजूल है। यह असीमित किंवदन्ती है। इसके बारे में, बार-बार मेरे दिमाग में एक ख्याल उठ आता है कि दुनिया में जितने भी लोग हैं, चाहे ऐतिहासिक और चाहे किंवदन्ती के, उन सबके कर्मों को समझने के लिए कर्म और फल, कारण और फल देखना पड़ता है। उनके जीवन में ऐसी घटनाएँ हैं कि जिन्हें एकाएक नहीं समझा जा सकता। वे अजब सी मालूम पड़ती है। तब जा करके वे सही मालूम पड़ती हैं। आप भी अपनी आपस की घटनाओं को सोच लेना। आपके आपस में रिश्ते होंगे। न जाने कितनी बातें होती होंगी। बड़े लोगों के मानी सिर्फ यह है कि जिनका नाम हो जाया करता है, और कोर्इ मतलब नहीं है, चाहे वे बदमाश ही लोग क्यों न हों, और आमतौर से, बदमाश लोगों का ही नाम हुआ करता है। खैर, बड़े लोग हों, छोटे लोग हों, कोर्इ हों, उनके आपसी रिश्ते होते हैं।उन आपसी रिश्तों के प्रकाश की एक श्रृंखला होती-एक कड़ी के बाद एक कड़ी, एक कड़ी के बाद एक कड़ी। अगर कोर्इ चाहे कि उनमें से किसी एक ही कड़ी को पकड़ कर पता लगाए कि आदमी अच्छा है या बुरा, तो गलती कर जाएगा क्योंकि उस कड़ी के पहले वाली कड़ी कारण के रूप में है और उसके बाद वाली कड़ी फल के रूप में है। क्यों किया? कर्इ बार ऐसे काम मालूम होते हैें जो लगते खुद बुरे हैं,गंदे हैं, या झूठे हैं। उदाहरण मैंने कृष्ण के लिए कहा वह सबके लिए है। लेकिन वह काम क्यों हुआ, उसका कारण क्या था और उसको करने के बाद परिणाम देखना, हर आदमी और हर किस्से और सीमित किंवदंती को समझने के लिए जरूरी होता है। शिव ही ऐसी किंवदंती है जिसका हरेक काम खुद अपने औचित्य को अपने आप में रखता है। कोर्इ भी काम आप शिव का ढूँढ़ लो, वह उचित काम होगा। उसके लिए पहले की कोर्इ कड़ी नहीं ढूँढनी पड़ेगी और न बाद की कोर्इ कड़ी । क्यों शिव ने ऐसा किया, उसका क्या नतीजा निकला, यह सब देखने की कोर्इ जरूरत नहीं होगी। औरों के लिए इसकी जरूरत पड़ जाएगी। राम के लिए जरूरत पड़ेगी, कृष्ण के लिए जरूरत पड़ेगी। दुनिया में हरेक आदमी के लिए जरूरत पड़ेगी, और जो दुनिया भर के किस्से हैं,उनके लिए जरूरत पड़ेगी। क्यों उसने ऐसा किया? पहले की बात याद करनी होगी कि क्या बातें हुर्इं, क्या कारण था, किसलिए उसका यह काम हुआ और फिर उसके क्या नतीजे निकले। हमेशा दूसरे लोगों के बारे में कर्म और फल की एक पूरी कड़ी बँधती है। लेकिन मुझे तो ढ़ूँढ़ने पर भी, शिव का ऐसा कोर्इ काम नहीं मालूम पड़ा कि मैं कह सकूँ कि उन्होंने क्यों ऐसा किया; ढ़ूँढ़ो, उसका क्या कारण था; ढूँढ़ो, बाद में उसका क्या परिणाम निकला। यह चीज बहुत बड़ी है। आज की दुनिया में प्राय: सभी लोग अपने मौजूदा तरीके को, गंदे कामों को उचित बताते हैं, यह कह कर कि आगे चल कर उसके परिणाम अच्छे निकलेंगे। वे एक कड़ी बाँधते हैं। आज चाहे वे गंदे काम हों, लेकिन हमेशा उसकी कड़ी जोड़ेंगे कि भविष्य में कुछ ऐसे नतीजे उसके निकलेंगे कि वह काम अच्छे हो जाएँगे। कारण और फल की ऐसी श्रृंखला खुद अपने दिमाग में बाँधते हैं, और दुनिया के दिमाग में बाँधते हैं कि किसी भी काम के लिए कोर्इ कसौटी नहीं बना सकती मानवता। आखिर कसौटियाँ होनी चाहिए। काम अच्छा है या बुरा, इसका कैसे पता लगाएँगे। कोर्इ कसौटियाँ होनी ही चाहिए। अगर एक के बाद एक कड़ी बाँध दें तो फिर कोर्इ कसौटी नहीं रह जाती। फिर तो मनमानी होने लग जाती है, क्योंकि जितनी लंबी जंजीर हो जाएगी, उतना ही ज्यादा मौका मिलेगा लोगों को अपनी मनमानी बात उसके अंदर रखने का। ऐसा दर्शन बनाओ, ऐसा सिद्धांत बनाओ कि जिसमें मौजूदा घटनाओं को जोड़ दिया जाए, किसी बड़ी, दूर भविष्य की घटना से, तो मौजूदा घटनाओं में कितना ही गंदापन रहे, लेकिन उस दूर के भविष्य की घटना, जो होनेवाली है, जिसके बारे में कोर्इ कसौटी बन नहीं सकती कि वह होगी या नहीं होगी इसके बारे में बहुत हद तक आदमी को मान कर चलना पड़ता है कि वह शायद होगी, उसको लेकर मोजूदा घटनाओं का औचित्य या अनौचित्य ढ़ूँढा जाता है। और यह हमेशा हुआ है। मैं यहां मौजूदा दुनिया के किस्से तो बताऊँगा नहीं, लेकिन इतना आपसे कह दूँ कि प्राय: यह जरा अति बोली है, लेकिन प्राय: हरेक राजनीति की, समाज की, अर्थशास्त्र की घटना ऐसी ही है कि जिसका औचित्य या तो कोर्इ पुरानी या कोर्इ आगे आने वाली किसी जंजीर के साथ बँध जाता है। यहां मैं सिर्फ कृष्ण का ही किस्सा बता देता हूं कि अश्वत्थामा के बारे में धीमे से बोलना या जोर से बोलने के औचित्य और अनौचित्य को, कौरव-पांडवों की लड़ार्इ से बहुत पुराना किस्सा, बहुत आगे आने, वाली घटना के साथ जोड़ दिया जाता है। यह खुद बुरा काम है, मान कर चलना पड़ता है। लेकिन उस बुरे काम का औचित्य साबित हो जाता है पुराने कारण से और भविष्य में आनेवाले परिणाम से। आप शिव का ऐसा कोर्इ किस्सा नहीं पाओगे। शिव का हरेक किस्सा अपने आप उचित है। उसी के अंदर सब कारण और सब फल भरे हुए हैं। जिससे मालूम पड़ता है कि वह सही है, ठीक है, उसमें कोर्इ गलती हो नहीं सकती। मुझे शिव के किस्से यहाँ नहीं सुनाने हैं। मशहूर तो बहुत है। शायद, पार्वती को अपने कंधे पर लादे फिरनेवाला किस्सा, इतनी तफसील में कि पार्वती के शरीर का कौन सा अंग कहाँ गिरा और कौन सा मंदिर कहाँ बना, सबको मालूम है। गौतम बुद्ध और अशोक के बारे में या अकबर के बारे में ऐसे किस्से नहीं मशहूर हैं। शिव के वे सब किस्से बहुत मशहूर हैं और अच्छी तरह से लोगों को मालूम हैं। अगर नहीं मालूम हों तो जरा ये किस्से सुन लिया करो, अभी आपकी दादी जिंंदा होगी तो उससे।दादी जिंदा न हो तो नानी जिंदा होगी, कोर्इ न कोर्इ होगी, और अगर वह भी न हो, तो अपनी बीबी से सुन लिया करो। शिव का कोर्इ भी किस्सा अपने आप उचित है। ऐसा लगता है कि जैसे किसी आदमी की जिंदगी में चाहे हजारों घटनाएँ हुर्इ हों और उनमें से एक-एक घटना खुद एक जिंदगी है। उसके लिए पहले की दूसरी घटना और आगे की दूसरी घटना की कोर्इ जरूरत नहीं रहती। शिव बिना सीमा की किंवदंती है और बहुत से मामलों में छाती को बहुत चौड़ा करनेवाली, और उसके साथ-साथ आदमी को एक उँगली की तरह रास्ता दिखानेवाली कि जहाँ तक बन पड़े, तुम अपने हरेक काम को बिना पहले के कारण और बिना आगे के परिणाम को देखते हुए भी उचित बनाओ। हो सकता है, राम और कृष्ण और शिव, इन तीनों को लेकर कइयों के दिमाग में अलगाव की बातें भी उठती हों। मैं आपके सामने अभी एक विचार रख रहा हूं। जरूरी नहीं है कि इसको आप मान ही लें। हरेक चीज को मान लेने से ही दिमाग नहीें बढ़ा करता। उसको सुनाना, उसको समझने की कोशिश करना और फिर उसको छोड़ देने से भी , कर्इ दफे, दिमाग आगे बढ़ा करता हैं मैं खुद भी इस बात को पूरी तरह से अपनाता हूँ सो नहीं। एकाएक एक बार मैंने जब 1951-52 के आम चुनावों के नतीजों पर सोचना शुरू किया तो मेरे दिमाग में एक अजीब सी बात आयी। आपको याद होगा कि 1951-52 में हिंदुस्तान में आम चुनाव में एक इलाका ऐसा था कि जहाँ कम्युनिस्ट जीते थे, दूसरा इलाका ऐसा था जहां सोशलिस्ट जीते थे, तीसरा इलाका ऐसा था जहां धर्म के नाम पर कोर्इ न कोर्इ संस्था जीती थी। यों, सब जगह काँगे्रस जीती थी और सरकार उसी की रही। मैं इस वक्त सबसे बड़ी पार्टी की बात नहीं कह रहा। नंबर दो पार्टी की बात कह रहा हूं। सारे देश में नंबर वन पार्टी तो कांग्रेस रही। लेकिन हिंदुस्तान के इलाके कुछ ऐसे साफ से थे जहां पर ये तीनों पार्टियाँ जीतीं, अलग-अलग, यानी कहीं पर कम्युनिस्ट नंबर दो पर रहे,कहीं पर सोशलिस्ट नंबर दो पर रहे और कहीं पर ये जनसंघ, रामराज्य परिषद वगैरह मिला-जुला कर-इन सबको तो एक ही समझना चाहिए-नंबर दो रहे। मैं यह नहीं कहता कि जो कुछ मैं कह रहा हूँ वह सही है। मुमकिन है, इसके ऊपर अगर हिंदुस्तान के कालेज और विश्वविधालय जरा दिमाग कुछ चौड़ा करके देखते, कुछ तफरीही दिमाग से, क्योंकि तफरीह में भी कर्इ चीजें की जाती हैं, चाहे वे सही निकलें, न निकलें- तो हिंदुस्तान के नक्शे के तीन हिस्से बनाते। एक नक्शा वह, जहां राम सबसे ज्यादा चला हुआ है, दूसरा वह, जां कृष्ण सबसे ज्यादा चला हुआ है। तीसरा वह जहां शिव सबसे ज्यादा चला हुआ है। मैं जब राम, कृष्ण और शिव कहता हूं तो जाहिर है उनकी बीबियों को शामिल कर लेता हूं। उनके नौकरों को भी शामिल कर लेना चाहिए क्योंकि ऐसे भी इलाके हैं जहां हनुमान चलता है जिसके साफ माने हैं कि वहां राम चलता है; ऐसे इलाके हैं जहां काली और दुर्गा चलती हैं, इसके साफ माने हैं कि वहां शिव चलता है। हिंदुस्तान के इलाके हैं जहां पर इन तीनों ने अपना दिमाग साम्राज्य बना रखा है। दिमागी साम्राज्य भी रहा करता है। विचारों का, किंवदनितयों का। मोटी तौर पर शिव का इलाका वह इलाका था जहां कम्युनिस्ट नंबर दो हुए थे, मोटी तौर पर। उसी तरह कृष्ण का इलाका वह था जहां संघ और रामराज्य परिषद वाले नंबर दो हुए थे मोटी तौर पर राम का इलाका वह था जहां सोशलिस्ट नंबर दो हुए थे। मैं जानता हूं कि मैं खुद चाहूं तो इस विचार को एक मिनट में तोड़ सकता हूं, क्योंकि ऐसे बहुत से इलाके मिलेंगे जो जरा दुविधा के रहते हैं। किसी बड़े ख्याल को तोड़ने के लिए छोटे-छोटे अपवाद निकाल देना कौन सी बड़ी बात है। खैर, मोटी तौर पर मुझे ऐसे लगता है कि किंवदनितयों के इन तीन साम्राज्यों के मुताबिक ही हिंदुस्तान की जनता ने अपनी विरोधी शकितयों को चुनने की कोशिश की। आप कह सकते हैं कि अभी तो तुमने शिव की बड़ी तारीफ की थी। तुम्हारा यह शिव कैसा निकला। जहां पर शिव की किंवदंती का साम्राज्य है, वहां तो कम्युनिस्ट जीत गये। तो, फिर मुझे यह भी कहना पड़ता है कि जरूरी नहीं है कि इन किंवदनितयों के अच्छे ही असर पड़ते हैं, सब तरह के असर पड़ सकते हैं। शिव अगर नीलकण्ठ हैं और दुनिया के लिए अकेले जहर को अपने गले में बाँध सकते हैं तो उसके साथ-साथ-धतूरा खाने और पीने वाले भी हैं। शिव की दोनों तस्वीरें साथ-साथ जुड़ी हुर्इ हैं। मान लो, थोड़ी देर के लिए, वे धतूरा न भी खाते रहे हों। फिर से मंै बता दूँ कि ये सवाल सच्चार्इ और झूठार्इ के नहीं है। यह तो सिर्फ किसी आदमी के दिमाग का एक नक्शा है। हिंदुस्तान में करोड़ों लोग समझते हैं कि शिव धतूरा पीते हैं, शिव की पलटन में लूले-लंगड़े हैं, उसमें तो जानवर भी हैं, भूत-प्रेत भी हैं और सब तरह की बातें जुड़़ी हुर्इ हैं। लूले-लंगड़े, भूखे के मानी क्या हुए? गरीबों का आदमी। शिव का वह किस्सा भी आपको याद होगा कि शिव ने सती को मना किया था कि देखो तुम अपने बाप के यहां मत जाओ, क्योंकि उसने तुमको बुलाया नहीं। बहुत बढि़या किस्सा है यह। शिव ने कहा था कि जहां पर विरोध हो गया हो वहां पर बिना बुलाए मत जाओ, उसमें कल्याण नहीं हुआ करता है। पर फिर भी सती गयी। यह सही है कि उसके बाद शिव ने अपना, वक्ती तौर पर जैसा मैंने कहा, वही काम खुद अपने आप में उचित है-बहुत जबरदस्त गुस्सा दिखाया था। और उसकी पलटन कैसी थी! पटटपावके किशोर चंद्र शेखरे..... शिव की जो तस्वीरें अक्सर आँखों के सामने आती हैं वह किस तरह की हैंं जटा मेें चंद्रमा है, लेकिन लपटें ज्वाला को निगल रही हैं, धगद्धगद हो रहा है। सब तरह की, एक बिना सीमा की किंवदंती सामने खड़ी हो जाती है-शकित की, फैलाव की, सब तरह के लोगों को साथ समेटने की। इसी तरह, जाहिर है, कृष्ण और राम की किंवदनितयों के भी दूसरे स्वरूप हैं। राम चाहे जितने ही मर्यादा पुरूषोत्तम रहे हों लेकिन अगर उनके किस्से का मामला बैलगाड़ी पुरानी लीक तक ही फँस कर रह जाए तो फिर उनके उपासक कभी आगे बढ़ नहीं सकते। वे लकीर में बँधे रह जाएंगे। यह सही है कि राम के उपासक, शायद, बहुत बुरा काम नहीं करेंगे, क्योंकि बुरार्इ करने में भी वे मर्यादा से बंधे हैं, अगर अच्छार्इ करने में मर्यादा से बंधे हुए हैं तो। वे दोनों तरफ बंधे हुए हैंं शिव या कृष्ण में इस तरह बंधन का कोर्इ मामला नहीं है। कृष्ण में तो किसी भी नीति के बंधन का मामला नहीं है। और शिव में हर एक घटना खुद इतने महत्त्व की हो जाती है कि अपनी संपूर्ण शकित उसमें लगाकर, उस वक्त भी पूरी हद तक पहुंच सकते हैं या उससे बाहर, और उसके बाद जैसा कि दक्षिण वालों को तो यह कहीं ज्यादा मालूम होगा, उत्तर वालों के मुकाबले में। तांडव की भी कोर्इ बुनियाद होती है: एक गाढ़ निंद्रा-एकाएक आंखें खुलीं, लीला देखी, ली के साथ-साथ आँखें इधर-उधर मटकायीं और देख कर फिर आंखें बंद हो गयीं। फिर, मुमकिन है, एक दूसरी सतह पर आंख बंद हुर्इ और लीला हुर्इ और चली गयी, आंखें खुली और बंद हुर्इ। इससे एक तामस भी जुड़ा हुआ है। शांति सतोगुण का प्रतीक है। लेकिन अगर शांति कहीं बिगड़ना शुरू हो जाए तो फिर वह तामस का रूप ले लिया करती है। चुप बैठो, कुछ करो मत, धगघ्दगद होता रहे, धतूरा या धतूरे के प्रतीक की कोर्इ न कोर्इ चीज चलती रहे। और हमारे देश में अकर्मण्यता का तो बहुत जबरदस्त दार्शनिक आधार है, कर्म नहीं करने का। यह सभी है कि अलग-अलग मौकों पर हिंदुस्तान के इतिहास में अलग-अलग दार्शनिकों ने कर्म के सिद्धांत को अपने हिसाब से समझने की कोशिश की है। लेकिन बुनियादी तौर पर हिंदुस्तान का असली कर्म-सिद्धांत यही है कि जहां तक बन पड़े अपने आप को कर्म की फांसी से रिहा करो। यह सही है कि जो पुराने संचित कर्म हैं, उनसे तो छूट सकते नहीं, उनको तो भुगतना पड़ेगा, वे तो और नये कर्मों में आएँगे ही, लेकिन कोशिश यह करो कि नये कर्म न आएँ। हिंदुस्तान की सभ्यता का यह मूलभूत आधार कभी नहीं भूलना चाहिए, कि नये काम मत करो, पुराने कामों को भुगतना ही पड़ेगा और जब कामों की श्रृंखला अटूट जाएगी तभी मोक्ष मिलेगा। और शिव जैसी किंवदंती और इस तरह के विचार के मिल जाने के बाद, कर्इ बार तामस भी आ जाता है- उसके साथ-साथ एकाएक कोर्इ विस्फोट हो जाया करता है यानी जिसके आगे और पीछे कुछ है नहीं, नतीजा निकले या न निकले, क्योंकि, जहां हर एक कर्म अपने औचित्य को अपने आप में रखता है और न आगे है न पीछे है, वहां अगर किंवदंती कहीं बिगड़ गयी तो यह संभावना हो जाया करती है कि विस्फोट हो जाए। उसका आगे है न पीछे है और न ही कोर्इ तात्पर्य है। फिर, जब किंवदनितया बिगड़ती हैं, तो वे चाहे राम का इलाका हो, चाहे कृष्ण का इलाका हो, चाहे शिव का इलाका हो, बिगड़ती ही चली जाती हैं। मैं समझता हूं किसी हद तक, मैंने इन तीन किंवदतिंयों के स्वरूप आपके आमने रखे-बड़े स्वरूप। इनके किस्से किसी भी कौम के लिए मनोहर हैं और छाती को चौड़ा करने वाला है। जरूरी नहीं है कि कोर्इ उन किस्सों को माने। झूठे हैं तो इससे मुझे क्या मतलब? किस्से तो हैं न ।हम उपन्यास पढ़ते हैं कि नहीं पढ़ते। 'हितोपदेश और 'पंचतंत्र के गंगदत्त और प्रियदर्शन को याद रखते हैं। ये किस्से ऐसे हैं जिन्हें हर एक कौम, अपनी हँसी और अपने सपने को दिमाग की सतह पर, जो बहुत बुनियादी और गहरी सतह है, उस पर खोद कर रखा करती है। इन किस्सों के बारे में सावधान होकर रहना चाहिए। वह नीलकण्ठ शिव, जिसके हर एक काम का औचित्य उसके अंदर बना हुआ है। वह मर्यादा पुरूषोत्तम राम और वह योगेश्वर कृष्ण जो लीला करके चंद्रमा को ताना मारा करता है। ये सब किसी भी आदमी के दिल को बड़ा करने वाले किस्से हैं। पुराने देश ने इस बात का भी कुछ थोड़ा-बहुत इंतजाम किया है कि ये किंवदनितयाँ आपस में न टकराएँ। अगर वे कहीं टकराती हैं, शायद मुमकिन है भी, तो बोलचाल में कही लोगों में गरम बोलचाल हो गयी हो आपस में। ज्यादा से ज्यादा, मारपीट इस हद तक हुर्इ होगी कि लोगों ने मूत्र्तियाँ तोड़ी हों। मूत्र्तियाँ तो आज भी टूटती हैं, और पहले के जमाने में भी टूटी होंगी। इसमें आदमी को बहुत ज्यादा सोच-विचार नहीं करना चाहिए। यह सब तो लीला की तरह चलता रहता है, आँखें खोलो और बंद करो। कहीं पर मूर्ति टूट गयी या बन गयी, यह सब तो चला करता है। खैर। ये इंतजाम किये गये हैं कि तीनों आपस में टकराएँ नहीं। और सिर्फ जमुना और सरयू में ही एका करने की कोशिश नहीं की गयी। जब तुलसीदास गये जमुना के किनारे, तो उन्होंने सिर नवाने से इन्कार किया, यह जानते हुए कि सब एक ही माया है। लेकिन उन्होंने कहा कि भर्इ हाथ में धनुष बाण हाथ में आया, और सरयू एक हो गयीं। और, हमारे यहां के जो गाने बजाने वाले लोग हैं, उनसे बढ़कर इन मामलों में कोर्इ ओर नहीं हो सकते, जो राम को हमेशा जमुना के तट पर होली खिलवा कर छोड़ दिया करते हैं। जमुना के तट पर राम होली खेलें! अब कहो कि यह कौन सी बात है। सरयू के तट पर कृष्ण जा कर कौन सी अपनी रासलीला रचाएँ। ये सब चीजें हमारे लेखक कर दिया करते हैं। और लेखक कोर्इ मामूली आदमी थोड़े ही होते हैं, पर हर लेखकर नहीं। बड़ा लेखक बहुत बड़ा आदमी होता है। वह राम को भेज देता है जमुना किनारे और कृष्ण को भेज देता है सरयू किनारे फिर यह क्यों न संभव हो कि हिंदुस्तानी लोग भी ऐसी किंवदंती को अपनी आँखों के सामने लाएँ कि जिसमें शिव अपनी जटा में सिर्फ चंद्रमा ही नहीं, मुरली वाले कृष्ण को लिये हो, और मर्यादा पुरूषोत्तम राम के साथ तांडव कर रहे हों। लाने को ऐसी तस्वीरें लोग अपनी आँखों में ला ही सकते हैं, शायद आ जाए हिंदुस्तान में । मेरा बिल्कुल यह मतलब नहीं था कि कोर्इ उपदेश करूँ। उपदेश मैं कर भी क्या सकता हूँ। उपदेश करना बेवकूफी होगी। इसका सिर्फ एक मकसद था कि इन तीन किंवदनितयों के कुछ पहलुओं को आपके सामने लाना कि जिसमें कुछ किस्से- कहानियों को याद करके आपकी तबियत खुश हो, आप कुछ हँसें और कुछ सपने देखें। छ: महीने तक मरी हुर्इ पार्वती को अपने कंधों पर लाद कर ले चलना, यह भी एक अनोखा प्रेम है। लड़ार्इ के मैदान में दुनिया के शायद सबसे बड़े दर्शन को गीत के रूप में कह देना,यह भी एक अनोखा दर्शन है। यों, हिंदुस्तान में एक अजीब खूबी पायी गयी है कि अपने दर्शन को उसने गीत के रूप में कहा। और कौमों ने भी इसकी कोशिश की, लेकिन जिस किसी सबब से ही, उतनी सफलता नहीं मिली। उसी तरह से, राम ने भी अपनी ताकत को मर्यादा के अंदर रख कर अपना काम किया। जब रावण मरा था तो राम ने लक्ष्मण को रावण से राजनीति सीखने के लिए कहा कि जाओ, सीख आओ। पहले नहीं भेजा था। हर एक चीज का अपना वक्त होता है। कर्इ लोग कहते हैं कि राम बडा चतुर था। हो सकता है कि वह चतुर रहा हो। लक्ष्मण और परशुराम के संवाद में अक्सर ऐसा मालूम होता है कि जैसे बड़े भार्इ मजे में उसका रहे हों छोटे भार्इ को, कि तुम ताना मारो मैं तो हूँ ही, अगर मामला बिगडे़गा तो बचा ही लूंगा। तुम जरा मामला बढाते रहो। उसी तरह से, शूर्पणखा के मामले में, मालूम पड़ता है कि बड़े भार्इ साहब छोटे भार्इ साहब को अगर उकसा नहीं रहे हैं तो कम से कम मजा तो जरूर ले रहे हैं। आप देखते होगे कि जिंदगी में भी, जब कभी किसी दल के दो-तीन लोग होते हैं तो वे आपस में, चाहे पहले बातचीत हुर्इ हो या न हुर्इ हो, एक ऐसा इंतजाम सा कर लिया करते हैं कि एक तो दुश्मन को जरा शांत करेगा और अपने आदमी को जरा डाँटेगा-डपटेगा, तब दूसरा जरा गुस्से में बोलेगा, और फिर दोनों मिल कर उसके ऊपर हावी हो जाएंगे। खैर। राम ने लक्ष्मण को कभी भी रावण के पास लड़ार्इ के दौरान में नहीं भेजा जब रावण मर गया, तब भेजा। लक्ष्मण लौट कर आया, बोला-रावण तो कुछ बोलने को ही तैयार नहीं। तब राम ने उससे पूछा-तुमने किया क्या था? लक्ष्मण ने कहा, मैं वहाँ गया और मैंने रावण लेटा पड़ा था, मर रहा था और मैं उसके सिर की बगल में खड़े हुए थे? लक्ष्मण ने कहा कि रावण लेटा पड़ा था, मर रहा था और मैं उसके सिर की बगल में खड़ा हुआ। तो राम बोले-इस तरह से सीखा करते हो, जाओ, पैर के पास खड़े रहो, फिर सवाल पूछो और तब जवाब माँगो। लक्ष्मण फिर गया, पैर के पास खड़ा रहा तो उसे जवाब मिला। ऐसे बढि़या-बढि़या किस्से हैंं। छोटा सा किस्सा है कि दुश्मन है, बहुत बड़ी लड़ार्इ लड़ गयी और जब दुश्मन मर गया तब उसके पास अपना आदमी जाता है; पहले नहीं। मुमकिन है, मेरे किस्से को मेरे ही खिलाफ कुछ लोग इस्तेमाल कर दें और कहें कि तुम इस किस्से को बता रहे हो, तुम्हें जाना चाहिए, लेकिन रावण मरे तब लक्ष्मण जाता है, मरने के पहले नहीं। और जाकर सिरहाने नहीं खड़ा होना चाहिए, पैताने खड़ा होना चाहिए। जब बैठो कहीं मेज पर तो देख कर बैठो कि बगल वाले को कोर्इ तकलीफ तो नहीं हो रही है। कहीं अपनी जगह से ज्यादा नहीं ले रहे हो वगैरह, वगैरह। खैर। यहाँ मुझे सिर्फ इतना ही बताना है कि इन किस्सों की एक-एक तफसील में, एक-एक संवाद में, एक-एक बात में मजा भरा हुआ है। जरूरी नहीं है कि इन किस्सों को आप सही समझें। जरूरी नहीं है कि आप उनको धर्म मानें। उनको आप सिर्फ उपन्यास की तरह लें, एक ऐसा उपन्यास जो दस-बीस-पचास हजार आदमियों तक नहीं, बलिक जो करोड़ों लोगों तक पाँच हजार बरसों से चला आया है, और पता नहीं, कब तक चला जाता रहेगा। दुनिया के देशों में हिंदुस्तान किंवदनितयों के मामले में सबसे धनी है। हिंदुस्तान की किंवदनिदयों ने सदियों से लोगों के दिमाग पर निरंतर असर डाला है। इतिहास के बड़े लोगों के बारे में, चाहे वह बुद्ध हो या अशोक, देश के चौथार्इ से अधिक लोग अनभिज्ञ हैं। दस में एक को उनके काम के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी होगी और सौ में एक या हजार में एक उनके कर्म और विचार के बारे में कुछ विस्तार से जानता हो तो अचरज की बात होगी। देश के तीन सबसे बड़े पौराणिक नाम-राम, कृष्ण और शिव, सबको मालूम हैं। उनके काम के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी प्राय: सभी को, कम से कम दो में एक को तो होगी ही। उनके विचार व कर्म, या उन्होंने कौन से शब्द कब कहे, उसे विस्तारपूर्वक दस में एक जानता होगा। भारतीय आत्मा के लिए तो बेशक और कम से कम अब तक के भारतीय इतिहास की आत्मा के लिए और देश के सांस्कृतिक इतिहास के लिए, यह अपेक्षाकृत निरर्थक बात है कि भारतीय पुराण के ये महान लोग धरती पर पैदा हुए भी या नहीं। राम और कृष्ण शायद इतिहास के व्यकित थे और शिव भी गंगा की धारा के लिए रास्ता बनाने वाले इंजीनियर रहे हों और साथ-साथ एक अद्वितीय प्रेमी भी। इनको इतिहास के परदे पर उतारने की कोशिश करना एक हास्यास्पद चीज होगी। संभावनाओं की साधारण कसौटी पर इनकी जीवन कहानी को कसना उचित नहीं। सत्य का इससे अधिक आभास क्या मिल सकता है कि पचास या शायद सौ शताबिदयों से भारत की हर पीढ़ी के दिमाग पर इनकी कहानी लिखी हुर्इ है। इनकी कहानियां लगातार दुहरायी गयी हैं। बड़े कवियों ने अपनी प्रतिभा से इनका परिष्कार किया है और निखारा है तथा लाखों करोड़ों लोगों के सुख और दु:ख इनमें घुले हुए हैं। किसी कौम की किंवदंती उसके दु:ख और सपने के साथ उसकी चाह, इच्छा और आकांक्षाओं की प्रतीक है, तथा साथ-साथ जीवन के तत्त्व, उदासीनता और स्थानीय व संसारी इतिहास की भी। राम और कृष्ण और शिव भारत की उदासी और साथ-साथ रंगीन सपने हैं। उनकी कहानियों में एकसूत्रता ढूंढना या उनके जीवन में अटूट नैतिकता का ताना-बाना बुनना या असंभव गलत लगने वाली चीजें अलग करना उनके जीवन का सब कुछ नष्ट करने जैसा होगा केवल तर्क बचेगा। हमें बिना हिचक के मान लेना चाहिए कि राम और कृष्ण और शिव कभी पैदा नहीं हुए, कम-से-कम उस रूप में जिसमें कहा जाता है। उनकी किंवदंतियां गलत और असंभव हैं। उनकी श्रृंखला भी कुछ मामले में बिखरी है जिसके फलस्वरूप कोर्इ तार्किक अर्थ नहीं निकाला जा सकता। लेकिन यह स्वीकारोकित बिल्कुल अनावश्यक है। भारतीय आत्मा के इतिहास के लिए ये तीन नाम सबसे सच्चे हैं और पूरे कारवां में महानतम हैं, इतने ऊँचे और इतने अपूर्व हैं कि दूसरों के मुकाबले में गलत और असंभव दीखते हैं। जैसे पत्थरों और धातुओं पर इतिहास लिखा मिलता है, वैसे ही इनकी कहानियां लोगों के दिमागों पर अंकित है जो मिटार्इ नहीं जा सकती। भारत की पहाडियों में देवी देवताओं का निवास माना जाता है जिन्होंने कभी-कभी मनुष्य रूप में धरती पर आकर बड़ी नदियों के सांपों को मारा है या पालतू बनाया है। और भक्त गिलहरियों ने समुद्र बाँधा है। रेगिस्तान इलाकें के दैवी-विश्वास-यहूदी, र्इसार्इ और इस्लाम से हर देवता मिट चुके हैं, सिवा एक के, जो ऊपर और पहुंच के बाहर है, तथा उनके पहाड़ मैदान और नदियाँ किंवदतिंयों से शून्य हैं। केवल पढ़े-लिखे लोग या पुरानी गाथाओं की जानकारी रखनेवाले लोग माउंट ओलिम्पस के देवताओं के बारे में जानते हैंं भारत में जंगलों पर अटूट विश्वास और चंद्रमा का जड़ी-बूटी, पहाड़, जल और जमीन के साथ हमेशा चलनेवाला खिलवाड़ देवताओं और उनके मानवीय रूपों को सजीव रखता है व इनमें निखार लाता है। किंवदनितयां कथा नहीं है। कथा शिक्षक होती है। कथा का कलाकृति होना या मनोरंजक होना उसका मुख्य गुण नहीं, उसका मुख्य काम तो सीख देना है। किंवदनितयां सीख दे सकती हैं, मनोरंजन भी कर सकती हैं, लेकिन इनका मुख्य काम दोनों में से एक भी नहीं है। कहानी मनोरंजन करती है। बालजाक और मोपांसा और ओ-हेनरी ने अपनी कहानियों द्वारा लोगों का इतना मनोरंजन करती है। बालजाक और मोपांसा और ओ-हेनरी ने अपनी कहानियों द्वारा लोगों का इतना मनोरंजन किया है कि उनकी कौमों के दस में से एक आदमी उनके बारे में अच्छी तरह जानता है। इससे उनके जीवन में बेशक गहरार्इ और बड़प्पन आता है। बड़ा उपन्यास भी मनोरंजन करता है। यधपि उसका असर उतना जाहिरा तो नहीं, लेकिन शायद गहरा अधिक होता है। किंवदंती असंख्य चमत्कारी कहानियों से भरे प्राय: अनंत उपन्यास की तरह है। इनसे अगर सीख मिलती है तो केवल अपरोक्ष रूप से। ये सूरज, पहाड़ या फल-फूल जैसी हैं और हमारे जीवन का प्रमुख अंश है। आम और सतालू हमारे शरीर-तंतु बनाते हैं। वे हमारे रक्त और मांस में घुले हैं। किंवदनितयां लोगों के शरीर-तन की अवयव हैं, ये उनके रक्त-मांस में घुली होती है। इन किंवदनितयों को महान लोगों के जीवन के पवित्र नमूने के रूप् में देखना एक हास्यास्पद मूखर्ता होगी। लोग अगर इनको अपने आचार-विचार के नमूने के रूप में देखेंगे तो राम-कृष्ण और शिव की प्रतिष्ठा को नीचे गिरावेंगे। वे पूरे ही भारत के तंतु और रक्त-मांस के हिस्से हैं । उनके संवाद और उकितयां उनके आचार और कर्म, उनके किसी खास मौके पर कहे थे, ये सब भारतीय लोगों की जानी पहचानी चीजें हैं। ये सचमुच एक भारतीय की आस्था और कसौटी हैं, न केवल सचेत दिमागी कोशिश के रूप में, बलिक उस रूप में भी जैसा रक्त की शुद्धता पर स्वस्थ या रूग्न होना या न होन निर्भर होता है। किंवदनितयाँ एक तरह से महाकाव्य और कथा, कहानी और उपन्यास, नाटक और कविता की मिली जुली उपज हैं। किंवदनितयों में अपरिमित शकित है और यह अपनी कौम के दिमाग का अंश बन जाती हैं। इन किंवदनितयों में अशिक्षित लोगों को भी सुसंस्कृत करने की ताकत होती है। लेकिन उनमें सड़ा देने की क्षमता भी होती है। थोड़ा अफसोस होता है कि ये किंवदनितयां बुनियाद में विश्ववादी होते हुए भी स्थानीय रंग में रंगी होती हैं। इससे लगभग वैसा ही अफसोस होता है, जैसा हर काल के, हर मनुष्य के एक साथ और एक स्थान पर न रहने से होता है। मनुष्य जाति को अलग-अलग जगहों पर बिखर कर रहना होता है और इन जगहों की नदियां और पहाड़, लाल या मोती देने वाले समुद्र अलग हैं। विश्ववाद की जीभ स्थानीय ही होगी। यह समस्या स्त्री-पुरूष और उनके बच्चों की शिक्षा के लिए बराबर बनी रहेगी। अगर विश्ववाणी से स्थानीय रंग दूर किया जाए तो इस प्रक्रिया में भावनाओं का चढ़ाव-उतार खतम हो जाएगा, उसका रक्त सूख जाएगा और वह एक पीले साये के समान रह जाएगी। पिता राइन-गंगा मैया और पुनीत अमेजन सब एक चीजें हैं, लेकिन उनकी कहानी अलग-अलग है। शब्द के मतलब कुछ और भी होते हैं, सिवाय उनके नाम या जिसके लिए उसका इस्तेमाल होेता है। इनका पूरा मतलब और मजा उस स्थान और उसके इतिहास से लगाता रिश्ता होने पर ही मिल सकता है। गंगा एक ऐसी नदी है जो पहाडि़यों और घाटियों में भटकती फिरती है, कल-कल निनाद करती है, लेकिन उसकी गति एक भारी भरकम शरीर वाली औरत के समान मंदगामिनी है। गंगा का नाम गम धातु से बना है, जिससे गम-गम संगीत बनता है, जिसकी ध्वनि सितार की थिरकन के समान मधुर है। भारतीय शिल्प-कला के लिए, घडि़याल पर गंगा और कछुए पर उसकी छोटी बहन जमुना, एक रूचिकर विषय है। यदि अनामी मूर्तियों को शामिल न किया जाए तो वे भारतीय महिलाओं के प्रस्तर रूप की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरियां हैं। गंगा और यमुना के बीच आदमी मंत्र-मुग्ध सा खड़ा रहा जाता है कि ये कितनी समान हैं, फिर भी कितनी अलग। उनमें से किसी एक को चुनना बहुत मुशिकल है। ऐसी स्थानीय आभा से विश्ववाणी निकलती हैं इनसे उबरने का एक रास्ता हो सकता है। दुनिया भर की कौमों की किंवदिनितयां और कहानियां इकटठा की जाएं, उसी खूबी और सच्चार्इ के साथ, और उनमें प्रयोजन या सीख डालने की कोशिश न की जाएं जो कि दुनिया का चक्कर लगाते हैं उनकी मनुष्य जाति के प्रति जिम्मेदारी होती है कि वे इनके बारे में जहां जाएं, चर्चा करें। मिसाल के लिए हवार्इ द्वीप की मैडम पिलू की, जो अपनी उपसिथति से दो-तीन दिन तक आदमी को मुग्ध कर लेती है, जो छूने की कोशिश करने पर अन्तèर्यान हो जाती है, जो चाहती है कि उसके क्रेटर में सिगरेट का धुँआ फेंका जाए और जो बदले में गंधक का धुँआ फेंकती है। राम, कृष्ण और शिव भारत में पूर्णता के तीन महान स्वप्न हंै। सबका रास्ता अलग-अलग है। राम की पूर्णता मर्यादित व्यकितत्व में है, कृष्ण की उन्मुक्त या संपूर्ण व्यकितत्व में और शिव की असीमित व्यकितत्व में, लेकिन हर एक पूर्ण है। किसी एक का एक या दूसरे से अधिक या कम पूर्ण होने का कोर्इ सवाल नहीं उठता। पूर्णता में विभेद कैसे हो सकता है? पूर्णता में केवल गुण और किस्म का विभेद होता है। हर आदमी अपनी पसंद कर सकता है या अपने जीवन के किसी विशेष क्षण से संबंधित गुण या पूर्णता चुन सकता है। कुछ लोगों के लिए यह भी संभव है कि पूर्णता की तीनों किस्में साथ-साथ चलें-मर्यादित, उन्मुक्त और असीमित व्यकितत्व साथ-साथ रह सकते हैं। हिंदुस्तान के महान ऋषियों ने सचमुच इसकी कोशिश की है । वे शिव को राम के पास और कृष्ण को शिव के पास ले आये हैं और उन्होंने यमुना के तीर पर राम को होली खेलते बताया है। लोगों के पूर्णता के ये स्वप्न अलग किस्मों के होते हुए भी एक दूसरे में घुल-मिल गये हैं, लेकिन अपना रूप भी अक्षुण्ण बनाये रखा है। राम और कृष्ण, विष्णु के दो मनुष्य रूप हैं जिनका अवतार धरती पर धर्म का नाश और अधर्म के बढने पर होता है। राम धरती पर त्रेता में आये, जब धर्म का रूप इतना अधिक नष्ट नहीं हुआ था। वह आठ कलाओं से बने हुए थे और इसलिए एक संपूर्ण पुरूष थे। जब विष्णु ने कृष्ण के रूप में अवतार लिया तो स्वर्ग में उनका सिंहासन बिल्कुल सूना था। लेकिन जब राम के रूप में आये तो विष्णु अंशत: स्वर्ग में थे और अंशत: धरती पर। इन मर्यादित और उन्मुक्त पुरूषों के बारे में दो बहुमूल्य कहानियां कही जाती है। राम ने अपनी दृषिट केवल एक महिला तक सीमित रखी, उस निगाह से किसी अन्य महिला की ओर कभी नहीं देखा। यह महिला सीता थीं। उनकी कहानी बहुलांश राम की कहानी है, जिनके काम सीता की शादी, अपहरण और कैद-मुकित और धरती ( जिसकी वे पुत्री थीं) की गोद में समा जाने के चारों ओर चलते हैं। जब सीता का अपहरण हुआ तो राम व्याकुल थे। वे रो-रो कर कंकड़, पत्थर और पेड़ों से पूछते थे कि क्या उन्होंने सीता को देखा है। चंद्रमा उन पर हंसता था। विष्णु को हजारों वर्ष तक चंद्रमा का हंसना याद रहा होगा। जब बाद में वे धरती पर कृष्ण के रूप में आए तो उनकी प्रेमिकाएं असंख्य थीं । एक आधी रात को उन्होंने वृंदावन की सोलह हजार गोपियों के साथ रास-नृत्य किया। यह महत्त्व की बात नहीं कि नृत्य में साठ या छ: सौ गोपिकाएं थीं और रास-लीला में हर गोपी के साथ कृष्ण अलग-अलग नाचे। सब को थिरकाने वाला स्वयं अचल था। आनंद अटूट और अभेध था, उसमें तृष्णा नहीं थी। कृष्ण ने चंद्रमा को ताना दिया कि हंसों। चंद्रमा गंभीर था इन बहुमूल्य कहानियों में मर्यादित और उन्मुक्त व्यकितयों का रूप पूरा उभरा है और वे संपूर्ण हैं। सीता का अपहरण अपने में मनुष्य जाति की कहानियों की महानतम घटनाओं में से एक है। इसके बारे में छोटी-से-छोटी बात लिखी गयी है। यह मर्यादित, नियंत्रित और वैधानिक असितत्व की कहानी है। निर्वासन-काल के परिभ्रमण में एक मौके पर जब सीता अकेली छूट गयी थी तो राम के छोटे भार्इ लक्ष्मण ने एक घेरा खींच कर सीता को उसके बाहर पैर न रखने के लिए कहा। राम का दुश्मन रावण उस समय तक अशक्त था जब तक कि एक विनम्र भीखमंगे के छदमवेश में सीता को उसने उस घेरे के बाहर आने के लिए राजी नहीं कर लिया। मर्यादित पुरूष हमेशा नियमों के दायरे में रहता है। उन्मुक्त पुरूष नियम और कानून को तभी तक मानता है जब तक उसकी इच्छा होती है और प्रशासन में कठिनार्इ पैदा होते ही उनका उल्लंघन करता है। राम के मर्यादित व्यकितत्व के बारे में एक और बहुमूल्य कहानी है। उनके अधिकार के बारे में, जो नियम और कानून से बंधे थे, जिनका उल्लंघन उन्होंने कभी नहीं किया और जिनके पूर्ण पालन के कारण उनके जीवन में तीन या चार धब्बे भी आए। राम और सीता अयोध्या वापस आकर राजा और रानी की तरह रह रहे थे। एक धोबी ने सीता के बारे में शिकायत की। शिकायती केवल एक व्यकित था और शिकायत गंदी होने के साथ-साथ बेदम भी थी। लेकिन नियम था कि हर शिकायत के पीछे कोर्इ न कोर्इ दुख होता है और उसकी उचित दवा या सजा होना चाहिए। इस मामले में सीता का निर्वासन ही एकमात्र इलाज था। नियम अविवेकपूर्ण था, सजा क्रूर थी और पूरी घटना एक कलंक थी जिसने राम को जीवन के शेष दिनों में दुखी बनाया। लेकिन उन्होंने नियम का पालन किया, उसे बदला नहीं। वे पूर्ण मर्यादा पुरूष थे। नियम और कानून से बंधे हुए। और अपने बेदाग जीवन में धब्बे लगने पर भी उसका पालन किया। मर्यादा-पुरूष होते हुए भी एक दूसरा रास्ता उनके लिए खुला था। सिंहासन त्याग कर वे सीता के साथ फिर प्रवास कर सकते थे शायद उन्होंने यह सुझाव रखा भी हो, लेकिन उनकी प्रजा अनिच्छुक थी। उन्हें अपने आग्रह पर कायम रहना चाहिए था। प्रजा शायद नियम में ढिलार्इ करती या उसे खत्म कर देती लेकिन कोर्इ मर्यादित पुरूष नियमों का खत्म किया जाना पसंद नहीं करेगा, जो विशेषकाल में या किसी संकट से छुटकारा पाने के लिए किया जाता है। विशेषकर जब स्वयं उस व्यकित का उससे कुछ न कुछ संबंध हो । इतिहास और किंवदन्ती दोनों में अटकलबाजियां या क्या हुआ होता, इस सोच में समय नष्ट करना निरर्थक और नीरस है। राम ने क्या किया था, क्या कर सकते थे, यह एक मामूली अटकलबाजी है, इस बात की अपेक्षा कि उन्होंने नियम का यथावत पालन किया जो मर्यादित पुरूष की एक बड़ी निशानी है। आजकल व्यकित- नेतृत्व और सामूहिक नेतृत्व दोनों बुनियादी तौर पर उन्मुक्त व्यकितत्व के वर्ग के हो सकते हैं, जो नियम कानून नहीं मानते। सारा फर्क इसमें पड़ता है कि एक व्यकित या नौ या पंद्रह व्यकितयों का समूह अपने अधिकार के चारों ओर खीचें गये नियम के दायरे में रहता है या नहीं । एक व्यकित की अपेक्षा नौ व्यकितयों के समूह के लिए मर्यादा तोड़ना अधिक कठिन होता है लेकिन जीवन एक निरंतर चाल है और हर तरह की परस्पर विरोधी शकितयों की बदलती मात्रा के धुंधलकों में चलता रहता है। इस क्रम में व्यकित और समूह की उन्मुक्तता में बराबर अदला-बदली चल रही है। लेकिन एक बड़ी अदला-बदली भी चलती रही है जिसके चौखटे में व्यकित और समूह का आगे पीछे होना लगा रहता है और वह मर्यादित और उन्मुक्त पुरूष के बीच अदला बदली। राम मर्यादित पुरूष थे, जैसे कि वास्तविक वैधानिक प्रजातंत्र। कृष्ण एक उनमुक्त पुरूष थे। लगभग वैसे ही जैसे नेताओं की उच्चस्तरीय समिति जो अपनी बु द्धि से हर नियम का अतिक्रमण करती है। यह एक उन्मुक्त समूह है। इन दो सवालों में, कि व्यकित या समूह के पास शकित है या कि अधिकार, एक सीमा और दायरे में या खुला और छूट वाला है, दूसरा सवाल अधिक महत्वपूर्ण है। क्या अधिकार नियम और कानून के ऊपर चल सकता है। जब इस बड़े सवाल का हल मिल जाएगा तब छोटा सवाल उठेगा कि मर्यादित अधिकारी व्यकित है या समूह। बेशक सर्वोतम अधिकारी मर्यादित समूह है। राम मर्यादा पुरूष थे ऐसा रहना उन्होंने जान-बूझ कर और चेतन रूप से चुना था, बेशक नियम और कानून आदेश पालन के लिए एक कसौटी थे। लेकिन यह बाहरी दबाव निरर्थक हो जाता यदि उसके साथ-साथ अंदरूनी पे्ररणा न होती। विधान के बाहरी नियंत्रण और मन की अंदरूनी मर्यादा एक दूसरे को पुष्ट और मजबूत करते हैं। किसी भी प्रेरक का प्राथमिकता का तर्क देना निरर्थक होगा। किसी मर्यादित पुरूष के लिए विधान की बाहरी जंजीरें मन की अंदरूनी प्रेरणा का दूसरा नाम होगा। मर्यादित पुरूष का काम दोनों में मेल-जोल और समानान्तर का निर्णय करना है। मर्यादाएँ बाहरी नियंत्रण तो हैं ही, लेकिन अंदरूनी सीमाओं को भी छूती हैं। मर्यादित नेतृत्व वास्तव में नियंत्रित नेतृत्व है, लेकिन साथ-साथ वह मन के क्षेत्र में भी पहुंचता है। राम सचमुच एक नियंत्रित व्यकित थे, लेकिन उनका केवल इतना ही वर्णन करना गलत होगा। क्योंकि वे साथ-साथ मर्यादित पुरूष थे और नियम के दायरे में चलते थे। रावण के आखिरी क्षणों के बारे में एक कहानी कही जाती है। अपने जमाने का निस्संदेह वह सर्वश्रेष्ठ विद्वान था। हलांकि उसने अपनी विधा का गलत प्रयोग किया, फिर भी बुरे उधेश्य परे रख कर मनुष्य जाति के लिए उस विधा का संचय आवश्यक था। इसलिए राम ने लक्ष्मण को रामण के पास अंतिम शिक्षा मांगने के लिए भेजा। रावण मौन रहा। लक्ष्मण वापस आए। उन्होंने अपने भार्इ से असफलता का बयान किया और इसे रावण का सिरहाने खड़े थे। लक्ष्मण पुन: भेजे गये कि रावण के पैताने खड़े होकर निवेदन करें। फिर रावण ने राजनीति की शिक्षा दी। शिष्टाचार की यह सुंदर कहानी अद्वितीय और अब तक की कहानियों में सर्वश्रेष्ठ है। शिष्टाचार निश्चय ही उतना महत्वपूर्ण है जितनी नैतिकता। क्योंकि व्यकित कैसे खाता है या चलता है, या उठता बैठता है या कैसा दीख पड़ता है, कैसे कपड़े पहनता है, अपने लोगों से कैसे बातें करता है या उनके साथ कैसे रहता है, दूसरों की सुविधा का हमेशा ख्याल रखता है या नहीं, या हर प्राणी से कैसे बरताव करता है, यह शिष्टाचार का सवाल जरूर है, लेकिन किसी दूसरी चीज से कम महत्वपूर्ण नहीं। कृष्ण शिष्टाचार के उतने बड़े नमूने थे जितना कोर्इ मर्यादित पुरूष हो सकता है। उन्होंने सदव्यवहारी पुरूष या सिथतप्रज्ञ व्यकित की परिभाषा दी है। ऐसा व्यकित अपने ऊपर वैसा नियंत्रण रखता है जैसे कछुआ अपने शरीर पर नियंत्रण के कारण जब चाहे अपने अंगों को समेट सकता है। असावधानी में कोर्इ हरकत नहीं हो सकती। अन्य क्षेत्रों में चाहे जो भी भेद हो, लेकिन शिष्टाचार के क्षेत्र में सचमुच अपने निखरे रूप में उन्मुक्त पुरूष होता है। जो भी हो, मरणासन्न और श्रेष्ठ विद्वान के साथ शिष्टाचार की श्रेष्ठतम कहानी के रचयिता राम हैं। राम अक्सर श्रोता रहते थे न केवल उस व्यकित के साथ जिससे वे बातचीत करते थे, जैसा बड़ा आदमी करता है, बलिक दूसरे लोगों की बातचीत के समय भी। एक बार तो परशुराम ने उन पर आरोप लगाया कि वह अपने छोटे भार्इ को बेरोक और बढ़-चढ़ कर बात करने देने के लिए जान-बूझ कर चुप लगाए थे। यह आरोप थोड़ा सही भी है। अपने लोगों और उनके दुश्मनों के बीच होनेवाले वाद-विवाद में वे प्राय: एक दिलचस्पी लेनेवाले श्रोता के रूप में रहते थे। इसका परिणाम कभी-कभी बहुत भíा और दोषपूर्ण भी हो जाता था, जैसा लक्ष्मण और रावण की बहन शूर्पणखा के बीच हुआ। ऐसे मौकों पर राम ढृढ़ पुरूष की तरह शांत और निष्पक्ष दीखते थे। कभी-कभी अपने लोगों की अति को रोकते थे और अकसर उनकी ओर से या उन्हें बढ़ावा देते हुए एकाध शब्द बोल देते थे। यह एक चतुर नीति भी कही जा सकती है, लेकिन निश्चय ही यह मर्यादित व्यकित की भी निशानी है जो अपनी बारी आए बिना नहीं बोलता और परिसिथति के अनुसार दूसरों को बातचीत का अधिक से अधिक मौका देता है। कृष्ण बहुत वाचाल थे वे सुनते भी थे। लेकिन वे सुनते इसलिए थे कि वे और दिलचस्प बात कर सकें। उनके रास्ते पर चलने वालों को उनके शब्द आज भी जादू जैसे खींचते हैं। राम चुप्पी का जादू जानते थे, दूसरों को बोलने देते थे, तब तक कि उनके लिए जरूरी नहीं हो जाता था कि बात या काम के द्वारा हस्तक्षेप करें। राम मर्यादा-पुरूष थे इसलिए अपनी चुप्पी और वाणी दोनों के लिए समान रूप से याद किये जाते हैं। राम का जीवन बिना हड़पे हुए फैलने की एक कहानी है। उनका निर्वासन देश को एक शकितकेंद्र के अंदर बांधने का एक मौका था। इसके पहले प्रभुत्व के दो प्रतिस्पर्धी केंद्र थे। अयोध्या और लंका। अपने प्रवास में राम अयोध्या से दूर लंका की ओर गये। रास्ते में अपने राज्य और राजधानियाँ पड़ीं जो एक अथवा दूसरे केंद्र के मातहत थींं। मर्यादित पुरूष की नीति-निपुणता की सबसे अच्छी अभिव्यकित तब हुर्इ जब राम ने रावण के राज्यों में एक बड़े राज्य को जीता। उसका राजा बालि था। बालि से उसके भार्इ सुग्रीव और उसके महान सेनापति हनुमान दोनों अप्रसन्न थे। वे रावण के मेल-जोल से बाहर निकल कर राम की मित्रता और सेवा में आना चाहते थे। आगे चल कर हनुमान राम के अनन्य भक्त हुए। यहाँ तक कि एक बार उन्होंने अपना âदय चीर कर दिखाया कि वहां राम के सिवा और कोर्इ भी नहीं। राम ने पहली जीत को शालीनता और मर्यादित पुरूष की तरह निभाया। राज्य हड़पा नहीं जैसे का तैसा रहने दिया। वहां के ऊँचे या छोटे पदों पर बाहरी लोग नहीं बैठाये गये। कुल इतना ही हुआ कि एक द्वन्द्व में बालि की मृत्यु के बाद सुग्रीव राजा बनाए गये। बालि की मृत्यु भी राम के जीवन के कुछ धब्बों में एक है। राम एक पेड़ के पीछे छिपे खड़े थे और जब उनके मित्र सुग्रीव की हालत खराब हुर्इ तो छिपे तौर पर उन्होंने बालि पर वाण चलाया । यह कानून का उल्लंघन था। कोर्इ संसारी और मर्यादा-पुरूष ऐसा कभी नहीं करता । लेकिन राम कह सकते थे कि उनके सामने मजबूरी थी। प्रशा के फ्रेडरिक महान की तरह, जो बहुत सफार्इ के साथ व्यकित और राज्य की नैतिकता में भेद करते थे और इस भेद के आधार पर एक झूठ अथवा वादाखिलाफी के जरिए आम हत्याकांड या गुलामी रोकने के पक्षपाती थे, और इसीलिए उन्होंने ऐसे राजाओं को क्षमा किया जो संधियों के प्रति वफादार तो थे, लेकिन जीवन में जिन्होंने एक बार कभीं संधि तोड़ी। राम भी तर्क कर सकते थे कि उन्होंने एक व्यकित को, यधपि थोड़ा बहुत गलत तरीके से मार कर आम हत्याएं रोकी और उन्होंने अपने जीवन के केवल एक दुष्टतापूर्ण काम के जरिये एक समूचे राज्य को आच्छार्इ के रास्ते पर लगाया और अपने सिवाए किसी ओर क्रम में विघ्न नहीं डाला। स्वाभाविक था कि सुग्रीव अच्छार्इ के मेल-जोल में आए और लंका विजय करने के लिए बाद में अपनी सारी सेना आदि दिया। यह सही है कि यह सब कुछ बालि की मृत्यु से हासिल हुआ। राज्य पूर्ण रूप से स्वतंत्र रहा और राम से दोस्ती संभवत: वहां के नागरिकों की स्वतंत्र इच्छा से की गयी। फिर भी तबीयत यह होती है कि कोर्इ मर्यादा-पुरूष, छोटा या बड़ा, नियम न तोड़े, अपने जीवन में एक बार भी नहीं। बड़े और अच्छे शासन के लिए राम की बिना हड़पे हुए फैलाव की कहानी में, बिना साम्राज्यशाही के एकीकरण, और राजनीति की भाग-दौड़ में मर्यादित रूप से काम करने आदि के साथ-साथ दुश्मन के खेमे में अच्छे दोस्तों की खोज चलती रही। उन्होंने लंका में इस क्रम को दोहराया। रावण के छोटे भार्इ विभीषण राम के दोस्त बने। लेकिन किषिकन्धा की कहानी दोहरायी नहीं जा सकी। लंका में काम कठिन था। घनघोर युद्ध हुआ, और बहुत से लोग मारे गये। आगे चलकर विभीषण राजा बना और उसने रावण की पत्नी मंदोदरी को अपनी रानी बनाया। लंका में भी अच्छार्इ का राज्य स्थापित हुआ। आज तक भी विभीषण का नाम जासूस, द्रोही, पंचमांगी, और देश अथवा दल से गíारी करने वाले का दूसरा रूप माना जाता है। विशेष कर राम के शकित-केंद्र अवध के चारों ओर। यह एक प्रशंसनीय और दिशाबोधकर बात है कि कोर्इ कवि विभीषण के दोष को नहीं भूल सका। मर्यादा पुरूषोत्तम राम अपने मित्र को आम लोगों की नजर में स्वीकार्य बनाने का चमत्कार नहीं कर सके। यह शायद मर्यादा-पुरूष की निशानी हो कि अच्छार्इ जीती तो जरूर लेकिन एक ऐसे व्यकित के जरिए जीती जिसने द्रोह भी किया और इसलिए उसके नाम पर गíारी का दाग बराबर लगा रहे। कृष्ण संपूर्ण पुरूष थे उनके चेहरे पर मुस्कान और आनंद की छाप बराबर बनी रही और खराब से खराब हालत में भी उनकी आँखें मुस्काराती रहीं। चाहे दु:ख कितना ही बड़ा क्यों न हो, कोर्इ भी र्इमानदार आदमी वयस्क होने के बाद अपने पूरे जीवन में एक या दो बार से अधिक नहीं रोता। राम अपने पूरे वयस्क जीवन में दो या शायद एक बार रोये। राम और कृष्ण के देश में ऐसे लोगों की भरमार है जिनकी आँखों में बराबर आँसू डबडबाये रहते है और अज्ञानी लोग उन्हें बहुत ही भावुक आदमी मान बैठते हैं। एक हद तक इसमें कृष्ण का दोष है। वे कभी नहीं रोये। लेकिन लाखों को आज तक रूलाते रहे हैं। जब वे जिंदा थे, वृंदावन की गोपियाँ इतनी दु:खी थीं कि आज तक गीत गाये जाते हैं: निशि दिन बरसत नैन हमारे, कंचुकि पट सूखत नहि कबहुँ, उर बिच बहत पनारे। उनके रूदन में कामना की ललक भी झलकती है, लेकिन साथ ही साथ इतना संपूर्ण आत्मसमर्पण है कि 'स्व का कोर्इ असितत्व नहीं रह गया हो। कृष्ण एक महान प्रेमी थे, जिन्हें अदभूत आत्मसमर्पण मिलता रहा और आज तक लाखों स्त्री-पुरूष और स्त्री वेश में पुरूष, जो अपने प्रेमी को रिझाने के लिए सित्रयों जैसा व्यवहार करते हैं, उनके नाम पर आँसू बहाते हैं और उनमें लीन होते हैं। यह अनुभव कभी-कभी राजनीति में आता है और नपुंसकता के साथ-साथ फरेब शुरू हो जाता है। जन्म से मृत्यु तक कृष्ण असाधारण, असंभव और अपूर्व थे। उनका जन्म अपने मामा की कैद में हुआ, जहां उनके माता व पिता, जो एक मुखिया थे, बंद थे उनसे पहले जन्में भार्इ और बहन पैदा होते ही मार डाले गये थे। एक झोली में छिपा कर वे कैद से बाहर ले जाये गये। उन्हें जमुना के पार ले जाकर सुरक्षित स्थान में रखना था। गहरार्इ ने गहरार्इ को खींचा, जमुना बढ़ी और जैसे-जैसे उनके पिता ने झोली ऊपर उठार्इ, जमुना बढ़ती गयी, जब तक कि कृष्ण ने अपने चरण कमल से नदी को छू नहीं लिया। कर्इ दशकों के बाद उन्होंने अपना काम पूरा किया। उनके सभी परिचित मित्र या तो मारे गये या बिखर गये। कुछ हिमालय और स्वर्ग की ओर महाप्रयाण कर चुके थे। उनके कुनबे की औरतें डाकुओं द्वारा भगायी जा रही थी। कृष्ण द्वारिका का रास्ता अकेले तय कर रहे थे विश्राम करने वह थोड़ी देर के लिए एक पेड़ की छाँह में रूके। एक शिकारी ने उनके पैर को हिरन समझ कर बाण चलायी और कृष्ण का अंत हो गया। उन्होंने उस क्षण क्या किया? क्या उनकी अंतिम दृषिट करूणामयी मुस्कान के साथ हाथ में बाँसुरी लेकर ही संतुष्ट रहे? उनके दिमाग में क्या-क्या विचार आए? जीवन के खेल जो बड़े सुखमय, यधपि केवल लीला-मात्र थे, या स्वर्ग से देवताओं की पुकार जो अपने विष्णु के बना अभाव महसूस कर रहे थे। कृष्ण चोर, झूठे, मक्कार और खूनी थे। और वे एक पाप के बाद दूसरे पाप बिना रत्ती भर हिचक के करते थे। उन्होंने अपनी पोषक मां का मक्खन चुराने से लेकर दूसरे की बीबी चुराने तक का काम किया। उन्होंने महाभारत के समय एक ऐसे आदमी से आधा झूठ बुलवाया जो अपने जीवन में कभी झूठ नहीं बोला था। उनके अपने झूठ अनेक हैंं उन्होंने सूर्य को छिपा कर नकली सूर्यास्त किया ताकि उस गोधूलि में एक बड़ा शत्रु मारा जा सके। उसके बाद फिर सूरज निकला। वीर भीष्म पितामह के सामने उन्होंने नपुंसक शिखंडी को खड़ा कर दिया ताकि वे बाण न चला सकें। और खुद सुरक्षित आड़ में रहे। उन्होंने अपने मित्र की मदद स्वयं अपनी बहन को भगाने में की। लड़ार्इ के समय पाप और अनुचित काम के सिलसिले में कर्ण का रथ एक उदाहरण है। निश्चय ही कर्ण अपने समय में सेनाओं के बीच सबसे उदार आदमी था, शायद युद्धकौशल में भी सबसे निपुण था, और अकेले अजर्ुन को परास्त कर देता। उसका रथ युद्ध-क्षेत्र में फँस गया। कृष्ण ने अजर्ुन से वाण चलाने को कहा। कर्ण ने अनुचित व्यवहार की शिकायत की। इस समय महाभारत में एक अपूर्व वक्तृता हुर्इ जिसका कहीं कोर्इ जोड़ा नहीं, न पहले, न बाद मेंं कृष्ण ने कर्इ घटनाओं की याद दिलार्इ और हर घटना के कवितामय वर्णन के अंत में पूछा, 'तब तुम्हारा विवके कहाँ गया था? विवेक की इस धारा में कम से कम उस दौरान में विवेक और आलोचना का दिमाग मंद पड़ जाता है द्रौपदी का स्मरण हो आता है कि दुर्योधन के भरे दरबार में कैसे उसकी साड़ी उतारने की कोशिश की गयी। वहां कर्ण बैठे थे और भीष्म भी, लेकिन उन्होंने दुर्योधन का नमक खाया था यह कहा जाता है कि कुछ हद तक तो नमक खाने का जरूर असर होता है और नमक का हक अदा करने की जरूरत होती है कृष्ण ने साड़ी का छोर अनंत बना दिया, क्योंकि द्रौपदी ने उन्हें याद किया। उनके रिश्ते में कोमलता है, यधपि उसका वर्णन नहीं मिलता है। कृष्ण के भक्त उनके हर काम के दूसरे पहलू पेश करके सफार्इ करने की कोशिश करते हैं। उन्होंने मक्खन की चोरी अपने मित्रों में बाँटने के लिए की, उन्होंने चोरी अपनी मां की की, पहले तो खिझाने और फिर रिझाने के लिए। उन्होंने मक्खन बाल-लीला के रूप को दिखाने के लिए चुराया, ताकि आगे आनेवाली पीढि़यों के बच्चे उस आदर्श-स्वप्न में पलें। उन्हाेंने अपने लिए कुछ भी नहीं किया, या माना भी जाए तो केवल इस हद तक कि जिनके लिए उन्होंने सब कुछ किया वे उनके अंश भी थे। उन्होंने राधा को चुराया, न तो अपने लिए और न राधा की खुशी के लिए, बलिक इसलिए कि हर पीढ़ी की अनगिनत महिलाएं अपनी सीमाएं और बंधन तोड़ कर विश्व से रिश्ता जोड़ सकें। इस तरह की हर सफार्इ गैरजरूरी है। दुनिया के महानतम गीत भगवदगीता के रचयिता कृष्ण को कौन नहीं जानता। दुनिया में हिंदुस्तान एक अकेला देश है जहां दर्शन को संगीत के माध्यम से पेश किया गया है, जहाँ विचार बिना कहानी या कविता के रूप में परिवर्तित हुए गाये गये हैं। भारत के ऋषियों के अनुभव उपनिषदों में गाये गये हैं। कृष्ण ने उन्हें और शुद्ध रूप में निखारा। यधपि बाद के विद्वानों ने एक और दूसरे निखार के बीच विभेद करने की कितनी ही कोशिश की है। कृष्ण ने अपना विचार गीता के माध्यम से ध्वनित किया। उन्होंने आत्मा के गीत गाये। आत्मा को मानने वाले भी उनके शब्द चमत्कार में बह जाते हैं, जब वह आत्मा को अनश्वर जल और समीर की पहुँच के बाहर तथा शरीर बदले जाने वाले परिधान के रूप में वर्णन करते हैं। उन्होंने कर्म के गीत गाये और मनुष्य को, फल की अपेक्षा किये बिना और उसका माध्यम या करण बने बिना, निर्लिप्तता से कर्म में जुटे रहने के लिए कहा। उन्होंने समत्व में सुख और दु:ख, जीत या हार, गर्मी या सर्दी, लाभ या हानि और जीवन के अन्य उद्वेलन के बीच सिथत रहने के गीत गाये। हिंदुस्तान की भाषाएँ एक शब्द 'समत्वम के कारण बेजोड़ हैं, जिससे समता की भौतिक परिसिथतियों और आंतरिक समता दोनों का बोध होता है। इच्छा होती है कि कृष्ण ने इसका विस्तार से बयान किया होता। ये एक सिक्के के दो पहलु हैं-समता समाज में लागू हो और समता व्यकित का गुण हो, जो अनेक में एक देख सके। भारत का कौन बच्चा विचार और संगीत की जादुर्इ धुन में नहीें पला है, उनका औचित्य स्थापित करने की कोशिश करना उनके पूरे लालन-पालन की असलियत से इंकार करना है। एक मानी में कृष्ण आदमी को उदास करते हैंं उनकी हालत बिचारे âदय की तरह है जो बिना थके अपने लिए नहीं बलिक निरंतर दूसरे अंगों के लिए धड़कता रहता है। âदय क्यों धड़के या दूसरे अंगों की आवश्यकता पर क्यों मजबूती या साहस पैदा कर कृष्ण ने âदय की भी इच्छा पैदा की है। वे उस तरह के बन न सकें लेकिन इस प्रक्रिया में हत्या और छल करना सीख जाते हैं। राम और कृष्ण पर तुलनात्मक दृषिट डालने पर विचित्र बात देखने में आती है। कृष्ण हर मिनट में चमत्कार दिखाते थे। बाढ़ और सूर्यास्त आदि उनकी इच्छा के गुलाम थे। उन्होंने संभव और असंभव के बीच की रेखा को मिटा दिया था। राम ने कोर्इ चमत्कार नहीं किया। यहां तक कि भारत और लंका के बीच का पुल भी एक-एक पत्थर जोड़ कर बनाया। भले ही उसके पहले समुंद्र-पूजा की विधि करना और बाद में धमकी देना पड़ा। लेकिन दोनों के जीवन की संपूर्ण कृतियों की जाँच करने और लेखा मिलाने पर पता चलेगा कि राम ने अपूर्व चमत्कार किया और कृष्ण ने कुछ भी नहीं। एक महिला के साथ दो भाइयों ने अयोध्या और लंका के बीच 2000 मील की दूरी तय की। जब वे चले तो केवल तीन थे जिनमें दो लड़ार्इ और एक व्यवस्था कर सकते थे। जब वे लौटे, एक साम्राज्य बना चुके थे। कृष्ण ने सिवा शासक वंंश की एक शाखा से दूसरी शाखा को गíी दिलाने के और कोर्इ परिवर्तन नहीं किया। यह एक पहेली है कि कम से कम राजनीति के दायरे में मर्यादा पुरूष महत्वपूर्ण और सार्थक, और उन्मुक्त या संपूर्ण पुरूष छोटा और निरर्थक साबित हुआ। यह काल की पहेली के समान ही है। घटनाहीन जीवन में हर क्षण भार बन जाता है और बर्दाश्त के बाहर लंबा लगता है। लेकिन एक दशक या एक जीवन में उसका संकलित विचार करने से सहज और जल्दी बीता हुआ लगता है। उत्तेजना के जीवन में क्षण मोहक लगता है और समय इच्छा के विपरीत तेजी से बीतता लगता है। पर साल दो साल बाद पुनर्विचार करने पर भारी और धीरे-धीरे बीता हुआ लगता है। मर्यादा के सर्वोच्च पुरूष, मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने राजनीतिक चमत्कार हासिल किया। पूर्णता के देव कृष्ण ने अपनी कृतियों से विश्व को चकाचौंध किया, जीवन के नियम सिखाए, जो कि सी और ने नहीं किया था, लेकिन उनके संपूर्ण व्यकितत्व की राजनीतिक सफलता ठोस होने के बजाए बुलबुले जैसी है। गाँधी राम के महान वंशज थे आखिरी क्षण में उनकी जबान पर राम का नाम था। उन्होंने मर्यादा पुरूषोत्तम के ढाँचे में अपने जीवन को ढाला और देशवासियों का भी आहवान किया। लेकिन उनमें कृष्ण की एक बड़ी और प्रभावशाली छाप दीखती है। उनके पत्र और भाषण जब रोज या साप्ताहिक तौर पर सामने आते थे, तो एक सूत्रता में पिरोये लगते थे। लेकिन उनकी मृत्यु के बाद उन्हें पढ़ने पर विभिन्न परिसिथतियों में अर्थ और रूख परिर्वतन की नीति-कुशलता और चतुरार्इ का पता चलता है। द्वारिका ने मथुरा का बदला चुकाया। द्वारिका का पूत जमुना के किनारे मारा और जलाया गया। हजारों साल पहले जमुना ओर अभिमुख थे, जो अपने जीवन को अयोध्या के ढाँचे में ढालने में बहुलांश सफल भी हुए। फिर भी वह दोनों के विचित्र और बेजोड़ मिश्रण थे। राम और कृष्ण ने मानवीय जीवन बिताया। लेकिन शिव बिना जन्म और बिना अंत के हैं। र्इश्वर की तरह अनंत हैं, लेकिन र्इश्वर के विपरीत उनके जीवन की घटनाएँ समय-क्रम में चलती हैं। और विशेषताओं के साथ, इसलिए वे र्इश्वर से भी अधिक असीमित हैं। शायद केवल उनकी ही एकमात्र किंवदंती है जिसकी कोर्इ सीमा नहीं है। इस मामले में उनका मुकाबला कोर्इ और नहीं कर सकता। जब उन्होंंने प्रेम के देवता काम के ऊपर तृतीय नेत्र खोला और उसे राख कर दिया तब कामदेव की धर्म-पत्नी और प्रेम की देवी रति, रोती हुर्इ उनके पास गर्इ और अपने पति के पुनर्जीवन की याचना की। नि:संदेह कामदेव ने एक गंभीर अपराध किया था। क्योंकि उसने महादेव शिव को उद्विग्न करने की कोशिश की जो बिना नाम और रूप तथा तृष्णा के ही मन से ध्यानावसिथत होते हैं। कामदेव ने अपनी सीमा के बाहर प्रयास किया और उसका अंत हुआ। लेकिन हमेशा चहकने वाली रति पहली बार विधवा रूप में होने के कारण उदास दीख पड़ी। दुनिया का भाग्य अधर में लटका था। रति-क्रीड़ा अब के बाद बिना प्रेम के होने वाली थी। शिव माफ नहीं कर सकते थे। उन्होंने सजा उचित दी, लेकिन रति परेशान थी। दुनिया के भाग्य के ऊपर करूणा या रति की उदासी ने शिव को डिगा दिया। उन्होंने कामदेव को जीवन तो दिया लेकिन बिना शरीर के। तब से कामदेव निराकार है। बिना शरीर के काम हर जगह पहुँच कर प्रभाव डाल सकता है और घुल-मिल सकता है। ऐसा लगता है कि यह खेल शिव के ऊँचे पहाड़ी वासस्थान कैलाश पर हुआ होगा। मानसरोवर झील, जिसके पारदर्शी अथाह गहरार्इ और अपूर्व छवि वाले राक्षस ताल से लगा अजेय कैलाश, जहाँ बारहों महीने बर्फ जमी रहती है और अखण्ड शांति का साम्राज्य छाया रहता है, हिंदू कथाओं के अनुसार धरती का सबसे रमणीक स्थल और केंद्र-विंदु है। धर्म और राजनीति, र्इश्वर और राष्ट्र या कौम हर जमाने में और हर जगह मिल कर चलते हैं। हिंदुस्तान में यह अधिक होता है। शिव के सबसे बड़े कारनामों में एक उनका पार्वती की मृत्यु पर शोक प्रकट करना है। मृत पार्वती को अपने कंधे पर लाद कर वे देश भर में भटकते फिरे। पार्वती का अंग-अंग गिरता रहा, फिर भी शिव ने अंतिम अंग गिरने तक नहीं छोड़ा। किसी प्रेमी, देवता, असुर या किसी के भी साहचर्य निभाने की ऐसी पूर्ण और अनूठी कहानी नहीं मिलती। केवल इतना ही नहीं, शिव की यह कहानी हिंदुस्तान की अटूट और विलक्षण एकता की भी कहानी है। जहाँ पार्वती का एक अंग गिरा, वहाँ एक तीर्थस्थान बना। बनारस में मणिकर्णिका घाट पर मणि-कुंतल के साथ कान गिरा, जहाँ आज तक मृत व्यकितयों को जलाए जाने पर निशिचत रूप से मुकित मिलने का विश्वास किया जाता है। हिंदुस्तान के पूर्वी किनारे पर कामरूप में एक हिस्सा गिरा जिसका पवित्र आकर्षण सैकड़ों पीढि़यों तक चला आ रहा है, और आज भी देश के भीतरी हिस्सों में बूढ़ीं दादियां अपने बच्चों को पूरब की महिलाओं से बचने की चेतावनी देती है क्योंकि वे पुरूषों को मोह कर भेड़-बकरी बना देती हैं। सर्जक ब्रह्राा और पालक विष्णु में एक बार बड़ार्इ-छोटार्इ पर झगड़ा हुआ। वे संहारक शिव के पास फैसले के लिए गये। उन्होंने दोनों को अपने छोर का पता लगाने के लिए कहा, एक को अपने सर और दूसरे को पैर का, और कहा कि पता लगा कर पहले लौटने वाला विजेता माना जायेगा। यह खोज सदियों तक चलती रही और दोनों निराश लौटे। शिव ने दोनाेंं को अहंकार से बचने के लिए कहा। त्रिमूर्ति इस पर निर्णय कर खूब हंसे होंगे, और शायद दूसरे मौकों पर भी हंसते होंगे। विष्णु के बारे में यह बता देना जरूरी है, जैसा कर्इ दूसरी कहानियों से पता चलता है कि वह भी अनंत निद्रा और अनंत आकार के माने जाते हैं, जब तक शिव की लंबार्इ चौड़ार्इ अनंत में तय न कर उसकी परिभाषा न दी जाए। एक दूसरी कहानी उनके दो पुत्रों के बीच की है जो एक खूबसूरत औरत के लिए झगड़ रहे थे। इस बार भी इनाम उसको मिलने वाला था जो सारी दुनिया को पहले नाप लेगा। कार्तिकेय स्वास्थ्य और सौंदर्य की प्रतिमूर्ति थे और एक पल नष्ट किए बिना दौड़कर निकल पड़े। हाथी की सूंड वाले गणेश, लम्बोदर, बैठे सोचते रहे और बहुत देर तक मुंह बनाए बैठे रहे। कुछ देर में उनको एक रास्ता सूझा और उनकी आँखों में शरारत चमकी। गणेश उठे और धीमे-धीमे अपने पिता के चारों ओर घूमे और निर्णय उनके पक्ष में रहा। कथा के रूप में तो यह बिना सोचे और जल्दबाजी के बदले चिंतन, धीमे-धीमे सोच-विचार कर काम करने की सीख देती हैं लेकिन मूलरूप से यह शिव की कथा है जो असीम है और साथ-साथ सात पगों में नापी जा सकती है। निस्संदेह शरीर से भी शिव असीम हैं। हाथी की सूंड वाले गणेश का अपूर्व चरित्र है, पिता के हस्त कौशल के अलावा अपनी मंद, यधपि तीक्ष्ण बुद्धिमानी के कारण। जब वह छोटे थे, उनकी माता ने उन्हें स्नानागृह के दरवाजे पर देख-रेख करने और किसी को अंदर न आने के लिए कहा। प्रत्युत्पन्न क्रिया वाले शंकर उन्हें ढकेल कर अंदर जाने लगे, लेकिन आदेश से बंधे गणेश ने उन्हें रोका। पिता ने पुत्र का गला काट दिया। पार्वती को असीम वेदना हुर्इ। उस रास्ते जो पहला जीव निकला वह एक हाथी था। शिव ने हाथी का सिर उड़ा दिया और गणेश के धड़ पर रख दिया। उस जमाने से आज तक गहरी बुद्धिवाले, मनुष्य की बुद्धि के साथ गज की स्वामी भकित रखने वाले गणेश, हिंदू घरों में हर काम के शुरू में पूजे जाते हैं। उनकी पूजा से सफलता निशिचत हो जाती है। मुझे कभी-कभी विस्मय होता है कि क्या शिव ने इस मामले में अपने चरित्र के खिलाफ काम नहीं किया? क्या यह काम उचित था? हालांकि उन्होंने गणेश को पुनर्जीवित किया और इस तरह व्याकुल पार्वती को दु:ख से छुटकारा दिया। लेकिन उस हाथी के बच्चे की मां का क्या हाल हुआ होगा, जिसकी जान गयी? लेकिन सवाल का जवाब खुद सवाल में ही मिल जाता है। नये गणेश से हाथी और पुराने गणेश दोनों में से कोर्इ नहीं मरा। शाश्वत आनंद और बुद्धि का यह मेल कितना विचित्र है तथा हाथी और मनुष्य का मिश्रण कितना हास्यास्पद! शिव का एक दूसरा भी काम है। जिसका औचित्य साबित करना कठिन है। उन्होंने पार्वती के साथ नृत्य किया। एक-एक ताल पर पार्वती ने शिव को मात किया। तब उत्कर्ष आया। शिव ने एक थिरकन की और और अपना पैर ऊपर उठाया। पार्वती स्तब्ध और विस्मयचकित खड़ी रहीं और नारी की मर्यादा के खिलाफ भंगिमा नहीं दर्शा सकीं।अपने पति के इस अनुचित काम पर आश्चर्य प्रकट करती खड़ी रहीं। लेकिन जीवन का नृत्य ऐसे उतार-चढ़ाव से बनाता है जिसे दुनिया के नाक-भौं चढ़ाने वाले लोग अभद्र कहते हैंऔर जिससे नारी की मर्यादा बचाने की बात कहते है। पता नहीं शिव ने शकित की वन भंगिमा एक मुकाबले में, जिसमें वह कमजोर पड़ रहे थे, जीत हासिल करने के लिए प्रदर्शित की या सचमुच जीवन के नृत्य के चढ़ाव में कदम-कदम बढ़ाते हुए वे उद्वेलित हो उठे थे। शिव ने कोर्इ भी ऐसा काम नहीं किया जिसका औचित्य उस काम से ही न ठहराया जा सके। आदमी की जानकारी में वह इस तरह के अकेले प्राणी हैं जिनके हर काम का औचित्य अपने आप में था। किसी को भी उस काम के पहले कारण और न बाद में किसी काम का नतीजा ढूँढ़ने की आवश्यकता पड़ी और न औचित्य ढूँढ़ने की। जीवन कारण और कार्य की ऐसी लंबी श्रृंखला है कि देवता और मनुष्य दोनों को अपने कामों का औचित्य दूर तक जा कर ढूँढ़ना होता है। यह एक खतरनाक बात है। अनुचित झूठ को सच, गुलामी को आजादी और हत्या को जीवन करार दिया जाता है। इस तरह के दुष्टतापूर्ण तर्कों का एकमात्र इलाज है शिव का विचार, क्योंकि वह तात्कालिकता के सिद्धांत का प्रतीक है। उनका हर काम स्वयं में तात्कालिक औचित्य से भरा होता है और उसके लिए किसी पहले या बाद के काम को देखने की जरूरत नहीं होती है। असीम तात्कालिकता की इस महान किंवदंती ने बड़प्पन के रौ और स्वप्न दुनिया को दिये हैंं। जब देवों और असुरों ने समुद्र मथा तो अमृत के पहले विष निकला। किसी को यह विष पीना था। शिव ने उस देवासुर संग्राम में कोर्इ हिस्सा नहीं लिया और न तो समुद्र मंथन के समिमलित प्रयास में ही। लेकिन कहानी बढ़ाने के लिए वे विषपान कर गए। उन्होंने अपनी गर्दन में विष को रोक रखा और तब से वे नीलकंठ के नाम से जाने जाते हैं। दूसरा स्वप्न हर जमाने में हर जगह पूजने योग्य है। जब एक भक्त ने उनकी बगल में पार्वती की पूजा करने से इंकार किया तो शिव ने आधा पुरूष-आधा नारी, अद्र्धनारीश्वर रूप ग्रहण किया। मैंने आपादमस्तक इस रूप को अपने दिमाग में उतार पाने में दिक्कत महसूस की है, लेकिन उसमें बहुत आनंद मिलता है। मेरा इरादा इन किंवदनितयों के क्रमश: àास को दिखाने का नहीं है। शताबिदयों के बीच वे गिरावट की शिकार होती रही है। कभी-कभी ऐसा बीज जो समय पर निखरता है, व विपरीत हालतों में सड़ भी जाता है। राम के भक्त समय-समय पर पत्नी निर्वासक, कृष्ण के भक्त दूसरों की बीबियाँ चुरानेवाले, शिव के भक्त अघोरपंथी हुए हैंं। गिरावट और क्षतरूप की इस प्रक्रिया में मर्यादित पुरूष संकीर्ण हो जाता है। उन्मुक्त पुरूष दुराचारी हो जाता है, असीमित पुरूष प्रासांगिक और स्वरूपहीन हो जाता है। राम का गिरा हुआ रूप स्वरूपहीन व्यकितत्व बन जाता है। राम के दो असितत्व हो जाते हैं, मर्यादित और संकीर्ण कृष्ण के उन्मुक्त और क्षुद्र-प्रेमी, शिव के असीमित और प्रासंगिक। मैं कोर्इ इलाज सुझाने की धृष्ठता नहीं करूँगा और केवल इतना कहूँगा: भारतमाता, हमें शिव का मसितष्क दो, कृष्ण का âदय दो तथा राम का कर्म और वचन दो। हमें असीम मसितष्क और उमूक्त âदय के साथ-साथ जीवन की मर्यादा से रची।

Thursday, February 23, 2017

राम, कृष्ण औऱ शिव.. डा.राममनोहर लोहिया

 
डा राम मनोहर लोहिया फिलोसोफी
  
राम, कृष्ण, शिव
राम, कृष्ण, शिव राम और कृष्ण और शिव हिंदुस्तान के उन तीन नामों में हैं- मैं उनको आदमी कहूं या देवता, इसके तो कोर्इ खास मतलब नहीं होंगे- जिनका असर हिंदुस्तान के दिमाग पर ऐतिहासिक लोगों से भी ज्यादा है। गौतम बुद्ध या अशोक ऐतिहासिक लोग थे। लेकिन उनके काम के किस्से इतने ज्यादा और इतने विस्तार में आपको नहीं मालूम हैं, जितने कि राम और कृष्ण और शिव के किस्से। कोर्इ आदमी वास्तव में हुआ या नहीं, यह इतना बड़ा सवाल नहीं है, जितना यह कि उस आदमी के काम किस हद तक, कितने लोगों को मालूम हैं, और उनका क्या असर है दिमाग पर। राम और कृष्ण तो इतिहास के लोग माने जाते हैं, हों या न हों, यह दूसरे दर्जे का सवाल है। मान लें थोड़ी देर के लिए, वे सिर्फ उपन्यास के लोग हैं। शिव तो केवल एक किंवदंती के रूप में प्रचलित हैं। यह सही है कि कुछ लोगों ने कोशिश की है कि शिव को भी कोर्इ समय और शरीर और जगह दी जाए। कुछ लोगों ने कोशिश की है यही साबित करने की कि वे उत्तराखंड के एक इंजीनियर थे जो गंगा को ले आये थे हिंदुस्तान के मैदान में। यह छोटे-मोटे सवाल हैं कि राम और कृष्ण और शिव सचमुच इस दुनिया में कभी हुए या नहीं। असली सवाल तो यह है कि इनकी जिंदगी के किस्सों के छोटे-छोटे पहलू को भी पांच, दस, बीस, पचास हजार आदमी नहीं, बलिक हिंदुस्तान के करोड़ों लोग जानते हैं। यह हिंदुस्तान के इतिहास के किसी और आदमी के बारे में नहीं कहा जा सकता। मैं तो समझता हूं, गौतम बुद्ध का नाम भी हिंदुस्तान में शायद पचीस सैकड़ा से ज्यादा लोगों को मालूम नहीं होगा। उनके किस्से जानने वाले तो मुशिकल से हजार में एक-दो मिल जाएं तो मिल जाएं लेकिन राम और कृष्ण और शिव के नाम और उनके किस्से तो सबको मालूम हैं। गंगदत्त इतना बेवकूफ नहीं है कि अब फिर से कुएं में आए, क्योंकि भूखे लोगों का कोर्इ धर्म नहीं हुआ करता है। 'हितोपदेश और 'पंचतंत्र के इन किस्सों से करोड़ों बच्चों के दिमाग पर कुछ चीजें खुद आया करती हैं और उसी पर नीतिशास्त्र बना करता है। मैं जिनका जिक्र आज कर रहा हूं, वे ऐसे किस्से नहीं हैं। उनके साथ नीतिशास्त्र सीधे नहीं जुड़ा हुआ है। ज्यादा से ज्यादा आप यह कह सकते हो कि किसी भी देश की हंसी और सपने ऐसे महान किंवदंतियों में खुदे रहते हैं। हंसी और सपने, इन दो से और कोर्इ बड़ी चीज दूुनिया में नहीं हुआ करती है। जब कोर्इ राष्ट्र हंसा करता है तो वह खुद होता है, उसका दिल चौड़ा होता हैै और जब कोर्इ राष्ट्र सपने देखता है, तो वह अपने आदर्शों में रंग भर कर किस्से बना लिया करता है। राम कृष्ण और शिव कोर्इ एक दिन के बनाये हुए नहीं हैं। इनको आपने बनाया। इन्होंने आपको नहीं बनाया। आम तौर से तो आप यही सुना करते हो कि राम और कृष्ण और शिव ने हिंदुस्तान या हिंदुस्तानियों को बनाया। किसी हद तक, शायद यह बात सही भी हो, लेकिन ज्यादा सही बात हो कि करोड़ों हिंदुस्तानियों ने, युग-युगांतर के अंतर में, हजारों बरस में, राम कृष्ण और शिव को बनाया। उनमें अपनी हँसी और सपने के रंग भरे और तब राम और कृष्ण और शिव जैसी चीजें सामने हैंं। राम और कृष्ण तो विष्णु के रूप हैं, और शिव महेश के। मोटी तौर से लोग यह समझ लिया करते हैं कि राम और कृष्ण तो रक्षा या अच्छी चीजों की हिफाजत के प्रतीक हैं, और शिव विनाश या बुरी चीजों के नाश के प्रतीक हैं। मुझे ऐसे अर्थ में नहीं पड़ना है। कुछ लोग हैं जिन्हें मजा आता है हरेक किस्से में अर्थ ढंूढ़ने में। मैं अर्थ ढ़ूँढ़ूँगा। मुमकिन है सारा कहना बेमतलब हो, और जितना बेमतलब होगा उतना ही मैं उसे अच्छा समझूगाँ, क्योंकि हँसी और सपने तो बेमतलब हुआ करते हैं। फिर भी, असर उनका कितना पड़ता है? छाती चौड़ी होती है। अगर कोर्इ कौम अपनी छाती मौके-मौके पर ऐसी किंवदंतियों को याद करके चौड़ी कर लेती हो तो फिर उससे बढ़ कर क्या हो सकता है? कोर्इ यह न सोचे कि इस विषय से मैं कोर्इ अर्थ निकालना चाहता हूँ- राजनीतिक अर्थ या दार्शनिक अर्थ या और कोर्इ समाज के गठन का अर्थ। जहाँ तक बन पडे़, पिछले हजारों बरसों में जो हमारे देश के पुरखों और हमारी कौम ने इन तीनों किंवदंतियों में अपनी बात डाली है, उसको सामने लाने की कोशिश करूंँगा। राम की सबसे बड़़ी महिमा उनके उस नाम से मालूम होती है, जिसमें कि उन्हें मर्यादा पुरूषोत्तम कह कर पुकारा जाता है। जो मन में आया सा नहीं कर सकते । राम की ताकर बँधी हुर्इ है, उसका दायरा खिंचा हुआ है। राम की ताकत पर कुछ नीति की शास्त्र की या धर्म की या व्यवहार की या, अगर आप आज की दुनिया का एक शब्द ढ़ूँढे ंतो विधान की मर्यादा हैं। जिस तरह से किसी भी कानून की जगह, जैसे विधान सभा या लोक सभा पर विधान रोक लगा दिया करता है, उसी तरह से राम के कामों पर रोक लगी हुर्इ है। यह रोक क्यों लगी हुर्इ हैं और किस तरह की है, इस बात में अभी आप मत पडि़ए। लेकिन इतना कह देना काफी होगा कि पुराने दकियानूसी लोग भी जो राम और कृष्ण को विष्णु का अवतार मानते हैं, राम को तो सिर्फ आठ कलाओं का अवतार मानते हैं और कृष्ण को सोलह कलाओं का अवतार। कृष्ण संपूर्ण और राम अपूर्ण! अपूर्ण शब्द सही नहीं होगा, लेकिन अपना मतलब बताने के लिए मैं इस शब्द का इस्तेमाल किये लेता हूँ। ऐसे मामलों में, कोर्इ अपूर्ण और संपूर्ण नहीं हुआ करता, लेकिन जाहिर है, जब एक में आठ कलाएँ होंगी और दूसरे में सोलह कलाएँ होंगी, तो उससे कुछ नतीजे तो निकल ही जाया करेंगे। 'भागवत में एक बड़ा दिलचस्प किस्सा है। सीता खोयी थी तब राम को दु:ख हुआ था। दुख जरा ज्यादा हुआ। किसी हद तक मैं समझ भी सकता हूँ, गो कि लक्ष्मण भी वहां पर था और देख रहा था। इसलिए राम का पेड़ों से बात करना और रोना वगैरह कुछ ज्यादा समझ में नहीं आता। अकेले अगर राम रो लेते, तो बात दूसरी थी, लेकिन लक्ष्मण के देखते हुए, पेड़ से बात करना और रोना वगैरह, जरा ज्यादा आगे बढ़ गयी बात। कौन जाने, शायद, वाल्मीकि और तुलसीदास को यही पसंद रहा हो। लेकिन याद रखना चाहिये कि वाल्मीकि और तुलसीदास में भी फर्क है। वाल्मीकि की सीता और तुलसीदास की सीता, दोनों में बिल्कुल दो अलग-अलग दुनिया का फर्क है। अगर कोर्इ इस पर भी एक किताब लिखना शुरू करे कि सीता हिंदुस्तान में तीन चार हजार बरस के दौरान में किस तरह बदली, तो वह बहुत ही दिलचस्प किताब होगी। अभी तक ऐसी किताबें लिखी नहीं जा रही हैं, लेकिन लिखी जानी चाहिए। खैर राम रोये, पेड़ों से बोले, दुखी हुए, और वक्त चंद्रमा हँसा था। जाने क्यों चंद्रमा को ऐसी चीजों में दिलचस्पी रहा करती है कि वह हँसा करता है, ऐसा लोग कहते हैं। वह खूब हँसा। कहा, देखो तो सही, पागल कैसे रो रहा है। राम विष्णु के अवतार तो थे ही, चाहे आठ कला वाले।विष्णु को बात याद थी। न जाने कितने बरसों के बाद कुछ लोग कहते हैं, लाखों बरसों के बाद, हजारों बरसों के बाद, लेकिन मेरी समझ में शायद हजार दो हजार बरस के बाद-जब कृष्ण के रूप में वे आये तो फिर एक दिन, हजारों गोपियों के बीच में कृष्ण ने भी अपनी लीला रचार्इ। वे 16,000 थीं या 12,000 थीं, इसका मुझे ठीक अंदाज नहीं। एक-एक गोपी के अलग-अलग से, कृष्ण सामने आये और बार-बार चंद्रमा की तरफ देख कर ताना मारा, बोले, अब हँसों। जो चंद्रमा राम को देख कर हँसा था जब राम रोये थे, उसी चंद्रमा को उँगली दिखा कर कृष्ण ने ताना मारा कि अब जरा हँसों, देखो तो सही। सोलह कला और आठ कला का यह फर्क रहा। राम ने मनुष्य की तरह प्रेम किया। मैं इस समय इस बहस में बिल्कुल नहीं पड़ना चाहता कि सचमुच कृष्ण ने ऐसा किया या नहीं किया। यह बिल्कुल फिजूल बात है। मैं शुरू में ही कह चुका हूँ ऐसी कहानियों का असर ढँ़ूढ़ा जाता है, यह देख कर नहीं कि वे सच्ची हैं या झूठी, लेकिन यह देख कर उनमें कितना सच भरा हुआ है, और दिमाग पर उनका कितना असर पड़ता है। यह सही है कि कृष्ण ने प्रेम किया, और ऐसा प्रेम किया कि बिल्कुल बेरोये रह गये, और तब चंद्रमा को ताना मारा।राम रोये तो चंद्रमा ने विष्णु को ताना मारा; कृष्ण 16,000 गोपियों के बीच में बाँसुरी बजाते रहे, तो चंद्रमा को विष्णु ने ताना मारा। ये किस्से मशहूर हैं। इसी से आप और नतीजे निकालिए। कृष्ण झूठ बोलते हैं, चोरी करते हैं, धोखा देते हैं, और जितने भी अन्याय के, अधर्म के काम हो सकते हैं, वे सब करते है। जो कृष्ण के सच्चे भक्त होंगे, मेरी बात का बिल्कुल भी बुरा न मानेंगे। मुमकिन है कि एकाध नकली भक्त गुस्सा कर जाएं। एक बार जेल में मेरा साथ पड़ा था मथुरा के एक बहुत बड़े चौबे जी से और मथुरा तो फिर मथुरा ही है। जितना ही हम उनको चिढ़ाना चाहें, वे खुद अपने आप कह दें कि हाँ, वह तो माखनचोर था। कोर्इ क्या करे ऐसे आदमी को। हम कहें कृष्ण चोर था, वह कहें, हाँ, वह तो मााखनचोर था। हम कहें कृष्ण धोखेबाज था, तो वे जरूर कृष्ण को कोर्इ न कोर्इ झूठ दगा और धोखेबाजी और लम्पटपन को याद करके। सो क्यों? 16 कला हैं। मर्यादा नहीं, सीमा नहीं, विधान नहीें है, यह ऐसी लोकसभा है जिसके ऊपर विधान की कोर्इ रूकावट नहीं है, मन में आए सो करे। धर्म की विजय के लिए अधर्म से अधर्म करने को तैयार रहने का प्रतीक कृष्ण हैं। मैं यहाँ तो किस्से नहीं बतलाऊँगा, पर आप खुद याद कर सकते हो कि कब सूरज को छुपा दिया जब कि वह सचमुच नहीं छुपा था, कब एक जुमले के आधे हिस्से को जरा जोर से बोल कर और दूसरे हिस्से को धीमे बोल कर कृष्ण झुठ बोल गये। इस तरह की चालबाजियाँ तो कृष्ण हमेशा ही किया करते थे। कृष्ण सोलह कलाओं का अवतार, किसी चीज की मर्यादा नहीं। राम मर्यादित अवतार, ताकत के ऊपर सीमा जिसे वे उलाँघ नहीं सकते थे। कृष्ण बिना मर्यादा का अवतार। लेकिन इसके यह मानी नहीं कि जो कोर्इ झूठ बोले और धोखा करे वही कृष्ण हो सकता है। अपने किसी लाभ के लिए नहीं, अपने किसी राग के लिए नहीं। राग शब्द बहुत अच्छा शब्द है हिंदुस्तान का। मन के अंदर राग हुआ करते हैं, राग चाहे लोभ के हों, चाहे क्रोध के हों, चाहे र्इष्र्या के हों, राग होते हैं। तो यह सब, बीतराग, भय, क्रोध, जिसकी चर्चा हमारे कर्इ ग्रंथों में मिलती हैं, भय, क्रोध, राग से परे। धोखा, झूठ, बदमाशी और लम्पटपन कृष्ण का, एक ऐसे आदमी का था जिसे अपना कोर्इ फायदा नहीं ढ़ूँढ़ना था, जिसे कोर्इ लोभ नहीं था, जिसे र्इष्र्या नहीं थी। जिसे किसी के साथ जलन नहीं थी, जिसे अपना कोर्इ बढ़ावा नहीं करना था। यह चीज मुमकिन है या नहीं, इस सवाल को आप छोड़ दीजिए। असल चीज है, दिमाग पर असर कि यह संभव है या नहीं। हम लोग इसे संभव मानते भी हैं, और मैं खुद समझता हूँ कि अगर पूरा नही ंतो अधूरा, किसी न किसी रूप में यह चीज संभव है। कभी-कभी, आज के जमाने में भी राम और कृष्ण की तस्वीरें हिंदुस्तान के बड़े लोगों को समझते हुए आपकी आँखों के सामने नाचा करती होंगी। न नाचती हों तो अब आगे से नाचेंगी। एक बार मेरे दोस्त ने कहा था, गाँधी जी के मरने पर कि साबरमती या काठियावाड़ की नदियों का बालक जमुना के किनारे जलाया गया, और जमुना का बालक काठियावाड़ की नदियों के किनारे जलाया गया था। फासला दोनों में हजारों बरस का है। काठियावाड़ की नदियों का बालक और जमुना नदी का बालक, दोनों में शायद, इतना संबंध न दीख पाता होगा। मुझे भी नहीं दीखता था, कुछ अरसे पहले तक, क्योंकि गाँधी जी ने, खुद राम को याद किया और हमेशा याद किया। जब कभी गाँधी जी ने किसी नाम को लिया, तो राम का लिया। कृष्ण का नाम भी ले सकते थे। और शिव का नाम भी ले सकते थे वे। लेकिन नहीं। उन्हें एक मर्यादित तस्वीर हिंदुस्तान के सामने रखनी थी, एक ऐसी ताकत जो अपने ऊपर नीति, धर्म या व्यवहार की रूकावटों को रखे-मर्यादा पुरूषोत्तम का प्रतीक। मैंने भी सोचा था, बहुत अरसे तक, कि शायद गाँधी जी के तरीके कुछ मर्यादा के अंदर रह कर ही हुए। ज्यादातर यह बात सही भी है लेकिन पूरी सही भी नहीं है। और यह असर दिमाग पर तब पड़ता है जब आप गाँधी जी के लेखों और भाषणों को एक साथ पढ़ें। अंग्रेजों और जर्मनों की लड़ार्इ के दौरान में हर हफ्ते 'हरिजन में उनके लेख या भाषण छपा करते थे। हर हफ्ते उनकी जो बोली निकलती थी, उसमें इतनी ताकत और इतना माधुर्य होता कि मुझ जैसे आदमी को भी समझ में नहीं आता था कि बोली शायद, बदल रही है हर हफ्ते। बोली तो खैर हमेशा बदला करती है, लेकिन उसकी बुनियादें भी बदल गयींं ऐसा लगता था कृष्ण अपनी बोली की बुनियाद बदल दिया करते थे, राय नहीं बदलते थे ंकुछ महीने पहले का किस्सा है कि एकाएक मैंने, लड़ार्इ के दिनों में गाँधी जी ने जो कुछ लिखा था, हर हफ्ते से लगातार, दसमें से छ: महीनों की बातें एक साथ जब पढ़ी, तब पता चला कि किस तरह बोली बदल जाती थी। जिस चीज को आज अहिंसा कहा, उसी को दो-तीन महीने बाद हिंसा कह डाला और उसका उलटा, जिसे हिंसा कहा, उसे अहिंसा कह डाला। वक्ती तौर पर अपने संगठन के नीति-नियमों के मुताबिक जाने के लिये और अपने आदमियों की मदद पहुँचाने के लिए बुनियादी सिद्धांतों के बारे में भी बदलाव करने के लिए वे तैयार रहते थे। यह किया उन्होंने, लेकिन ज्यादा नहीं किया। मैं यह कहना चाहूँगा कि गाँधी जी ने कृष्ण का काम बहुत ज्यादा किया, लेकिन काफी किया। इससे कहीं यह न समझना कि गाँधी जी मेरी नजरों में गिर गये, कृष्ण मेरी नजरों में कहाँ गिर गयें ये तो ऐसी चीजें हैं जिनका सिर्फ सामना करना पड़ता है। गिरने-गिराने का तो कोर्इ सवाल है नहीं। लेकिन यह कि आदमी को अपनी कसौटियाँ हमेशा पैनी और साफ रखनी चाहिए कि जिससे पता चल सके कि जिस किसी चीज को उसने आदर्श बनाया है या जिन सिद्धांतों को अपनाया है, उन्हें वह सचमुच लागू किया करता है या नहीं। जैसे, साधनों की शुचिता या जिस तरह के मकसद हों, उसी तरह के तरीके हों, इन सिद्धांत को गाँधी जी ने न सिर्फ अपनाया बलिक बार-बार दुहराया। शायद इसी को उन्होंने अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा मकसद समझा कि अगर मकसद अच्छे बनाने हैं तो तरीके भी अच्छे बनाने पड़ेंगे। लेकिन आपको याद होगा कि किस तरह बिहार के भूकंप को अछूत प्रथा का नतीजा बता कर उन्होंने एक अच्छा मकसद हासिल करना चाहा था कि हिंदुस्तान से अछूत-प्रथा खत्म हो। बहुत बढि़या मकसद था, इसमें कोर्इ शक नहीं। उन दिनों जब रवीन्द्रनाथ ठाकुर और महात्मा गाँधी में बहस हुर्इ थी, तो मुझे एकाएक लगा कि रवींद्रनाथ ठाकुर क्यों यह तीन-पाँच कर रहे हैंं आखिर गाँधी जी कितना बड़ा मकसद हासिल कर रहे हैं। जाति-प्रथा मिटाना, हरिजन और अछूत-प्रथा मिटाना, इससे बड़ा और मकसद हो सकता है। लेकिन उस मकसद को हासिल करने के लिए कितनी बड़ी झूठ बोल गये कि बिहार का भूकंप हुआ इसलिए कि हिंदुस्तानी लोग आपस में अछूत प्रथा चलाते हैं। भला भूकंप और तारे और आसमान, पानी और सूरज वगैरह को भी इससे क्या पड़ा हुआ है कि हिंदुस्तान में अछूत प्रथा चलती है या नहीं चलती है। मैं, इस समय, बुनियाद तौर से राम और कृष्ण के बीच इस फर्क को सामने रखना चाहता हूँ कि एक तो मर्यादा पुरूषोत्तम है, एक की ताकतों के ऊपर रोक है, और दूसरा बिना रोक का, स्वयंभू है। यह सही है कि वह राग से परे है, राग से परे रह कर सब कुछ कर सकता है और उसके लिए कोर्इ नियम और उपनियम नहीं। शिव एक निराली अदा वाला है। दुनिया भर में ऐसी कोर्इ किंवदंती नहीं जिसकी न लंबार्इ है न चौड़ार्इ और मोटार्इ। एक फ्रांसिसी नहीं है। यानी ऐसी डाइमेंशनल मिथ है, (अँग्रेजी शब्द है, फ्राँसिसी नहीं) यानी ऐसी किंवदंती जिसकी कोर्इ सीमा नहीं है, जिसकी कोर्इ हदें नहीं हैं- न लंबार्इ, न चौड़ार्इ, न मोटार्इ। किंवदनितयाँ दुनिया में और जगह भी हैं, खास तौर से पुराने मुल्कों में जैसे फ्राँस आदि में हैं। कहाँ नहीं हैं? बिना किंवदनितयों के कोर्इ देश रहा ही नहीं, और जितने पुराने देश हैं उनमें किंवदनितयाँ ज्यादा हैं। मैंने शुरू में कहा था कि एक तरफ 'हितोपदेश और 'पंचतंत्र की गंगदत्त और प्रियदर्शन जैसी बच्चों की कहानियाँ है, तो दूसरी तरफ, हजारों बरस के काम के नतीजे के स्वरूप कुछ लोगों में कौम की हँसी और सपने भरे हुए हैं, ऐसी किंवदनितयाँ हैं। शिव ही एक ऐसी किंवदंती हैं जिसके न आगा है न पीछा। यहाँ तक कि वह किस्सा मशहूर है कि जब ब्रह्राा और विष्णु आपस में लड़ गये-ये देवी-देवता खूब लड़ा करते हैं, कभी-कभी आपस में-तो शिव ने उनसे कहा, लड़ो मत। जाओ तुममें से एक मेरे सिर का पता और दूसरा मेरे पैर का पता लगाए और फिर लौट कर आ कर मुझसे कहो। जो पहले पता लगा लेगा, उसकी जीत हो जाएगी। दोनों पता लगाने निकले। शायद अब तक पता लगा रहे हों। जो ऐसे किस्से-कहानियाँ गढ़ा करते हैं उनके लिए वक्त का कोर्इ मतलब नहीं रहता है। उनके लिए एक मिनट के मानी एक करोड़ बरस। कोर्इ हिसाब और गणित वगैरह का सवाल नहीं उठता उनके सामने। खैर, किस्सा यह है कि बहुत अरसे तक बाद, न जाने कितने लाखों बरस के बाद ब्रह्राा और विष्णु दोनों लौट कर आये और शिव से बोले कि भर्इ, पता तो नहीं लगा। तब उन्होंने कहा कि फिर क्यों लड़ते हो, फिजूल है। यह असीमित किंवदन्ती है। इसके बारे में, बार-बार मेरे दिमाग में एक ख्याल उठ आता है कि दुनिया में जितने भी लोग हैं, चाहे ऐतिहासिक और चाहे किंवदन्ती के, उन सबके कर्मों को समझने के लिए कर्म और फल, कारण और फल देखना पड़ता है। उनके जीवन में ऐसी घटनाएँ हैं कि जिन्हें एकाएक नहीं समझा जा सकता। वे अजब सी मालूम पड़ती है। तब जा करके वे सही मालूम पड़ती हैं। आप भी अपनी आपस की घटनाओं को सोच लेना। आपके आपस में रिश्ते होंगे। न जाने कितनी बातें होती होंगी। बड़े लोगों के मानी सिर्फ यह है कि जिनका नाम हो जाया करता है, और कोर्इ मतलब नहीं है, चाहे वे बदमाश ही लोग क्यों न हों, और आमतौर से, बदमाश लोगों का ही नाम हुआ करता है। खैर, बड़े लोग हों, छोटे लोग हों, कोर्इ हों, उनके आपसी रिश्ते होते हैं।उन आपसी रिश्तों के प्रकाश की एक श्रृंखला होती-एक कड़ी के बाद एक कड़ी, एक कड़ी के बाद एक कड़ी। अगर कोर्इ चाहे कि उनमें से किसी एक ही कड़ी को पकड़ कर पता लगाए कि आदमी अच्छा है या बुरा, तो गलती कर जाएगा क्योंकि उस कड़ी के पहले वाली कड़ी कारण के रूप में है और उसके बाद वाली कड़ी फल के रूप में है। क्यों किया? कर्इ बार ऐसे काम मालूम होते हैें जो लगते खुद बुरे हैं,गंदे हैं, या झूठे हैं। उदाहरण मैंने कृष्ण के लिए कहा वह सबके लिए है। लेकिन वह काम क्यों हुआ, उसका कारण क्या था और उसको करने के बाद परिणाम देखना, हर आदमी और हर किस्से और सीमित किंवदंती को समझने के लिए जरूरी होता है। शिव ही ऐसी किंवदंती है जिसका हरेक काम खुद अपने औचित्य को अपने आप में रखता है। कोर्इ भी काम आप शिव का ढूँढ़ लो, वह उचित काम होगा। उसके लिए पहले की कोर्इ कड़ी नहीं ढूँढनी पड़ेगी और न बाद की कोर्इ कड़ी । क्यों शिव ने ऐसा किया, उसका क्या नतीजा निकला, यह सब देखने की कोर्इ जरूरत नहीं होगी। औरों के लिए इसकी जरूरत पड़ जाएगी। राम के लिए जरूरत पड़ेगी, कृष्ण के लिए जरूरत पड़ेगी। दुनिया में हरेक आदमी के लिए जरूरत पड़ेगी, और जो दुनिया भर के किस्से हैं,उनके लिए जरूरत पड़ेगी। क्यों उसने ऐसा किया? पहले की बात याद करनी होगी कि क्या बातें हुर्इं, क्या कारण था, किसलिए उसका यह काम हुआ और फिर उसके क्या नतीजे निकले। हमेशा दूसरे लोगों के बारे में कर्म और फल की एक पूरी कड़ी बँधती है। लेकिन मुझे तो ढ़ूँढ़ने पर भी, शिव का ऐसा कोर्इ काम नहीं मालूम पड़ा कि मैं कह सकूँ कि उन्होंने क्यों ऐसा किया; ढ़ूँढ़ो, उसका क्या कारण था; ढूँढ़ो, बाद में उसका क्या परिणाम निकला। यह चीज बहुत बड़ी है। आज की दुनिया में प्राय: सभी लोग अपने मौजूदा तरीके को, गंदे कामों को उचित बताते हैं, यह कह कर कि आगे चल कर उसके परिणाम अच्छे निकलेंगे। वे एक कड़ी बाँधते हैं। आज चाहे वे गंदे काम हों, लेकिन हमेशा उसकी कड़ी जोड़ेंगे कि भविष्य में कुछ ऐसे नतीजे उसके निकलेंगे कि वह काम अच्छे हो जाएँगे। कारण और फल की ऐसी श्रृंखला खुद अपने दिमाग में बाँधते हैं, और दुनिया के दिमाग में बाँधते हैं कि किसी भी काम के लिए कोर्इ कसौटी नहीं बना सकती मानवता। आखिर कसौटियाँ होनी चाहिए। काम अच्छा है या बुरा, इसका कैसे पता लगाएँगे। कोर्इ कसौटियाँ होनी ही चाहिए। अगर एक के बाद एक कड़ी बाँध दें तो फिर कोर्इ कसौटी नहीं रह जाती। फिर तो मनमानी होने लग जाती है, क्योंकि जितनी लंबी जंजीर हो जाएगी, उतना ही ज्यादा मौका मिलेगा लोगों को अपनी मनमानी बात उसके अंदर रखने का। ऐसा दर्शन बनाओ, ऐसा सिद्धांत बनाओ कि जिसमें मौजूदा घटनाओं को जोड़ दिया जाए, किसी बड़ी, दूर भविष्य की घटना से, तो मौजूदा घटनाओं में कितना ही गंदापन रहे, लेकिन उस दूर के भविष्य की घटना, जो होनेवाली है, जिसके बारे में कोर्इ कसौटी बन नहीं सकती कि वह होगी या नहीं होगी इसके बारे में बहुत हद तक आदमी को मान कर चलना पड़ता है कि वह शायद होगी, उसको लेकर मोजूदा घटनाओं का औचित्य या अनौचित्य ढ़ूँढा जाता है। और यह हमेशा हुआ है। मैं यहां मौजूदा दुनिया के किस्से तो बताऊँगा नहीं, लेकिन इतना आपसे कह दूँ कि प्राय: यह जरा अति बोली है, लेकिन प्राय: हरेक राजनीति की, समाज की, अर्थशास्त्र की घटना ऐसी ही है कि जिसका औचित्य या तो कोर्इ पुरानी या कोर्इ आगे आने वाली किसी जंजीर के साथ बँध जाता है। यहां मैं सिर्फ कृष्ण का ही किस्सा बता देता हूं कि अश्वत्थामा के बारे में धीमे से बोलना या जोर से बोलने के औचित्य और अनौचित्य को, कौरव-पांडवों की लड़ार्इ से बहुत पुराना किस्सा, बहुत आगे आने, वाली घटना के साथ जोड़ दिया जाता है। यह खुद बुरा काम है, मान कर चलना पड़ता है। लेकिन उस बुरे काम का औचित्य साबित हो जाता है पुराने कारण से और भविष्य में आनेवाले परिणाम से। आप शिव का ऐसा कोर्इ किस्सा नहीं पाओगे। शिव का हरेक किस्सा अपने आप उचित है। उसी के अंदर सब कारण और सब फल भरे हुए हैं। जिससे मालूम पड़ता है कि वह सही है, ठीक है, उसमें कोर्इ गलती हो नहीं सकती। मुझे शिव के किस्से यहाँ नहीं सुनाने हैं। मशहूर तो बहुत है। शायद, पार्वती को अपने कंधे पर लादे फिरनेवाला किस्सा, इतनी तफसील में कि पार्वती के शरीर का कौन सा अंग कहाँ गिरा और कौन सा मंदिर कहाँ बना, सबको मालूम है। गौतम बुद्ध और अशोक के बारे में या अकबर के बारे में ऐसे किस्से नहीं मशहूर हैं। शिव के वे सब किस्से बहुत मशहूर हैं और अच्छी तरह से लोगों को मालूम हैं। अगर नहीं मालूम हों तो जरा ये किस्से सुन लिया करो, अभी आपकी दादी जिंंदा होगी तो उससे।दादी जिंदा न हो तो नानी जिंदा होगी, कोर्इ न कोर्इ होगी, और अगर वह भी न हो, तो अपनी बीबी से सुन लिया करो। शिव का कोर्इ भी किस्सा अपने आप उचित है। ऐसा लगता है कि जैसे किसी आदमी की जिंदगी में चाहे हजारों घटनाएँ हुर्इ हों और उनमें से एक-एक घटना खुद एक जिंदगी है। उसके लिए पहले की दूसरी घटना और आगे की दूसरी घटना की कोर्इ जरूरत नहीं रहती। शिव बिना सीमा की किंवदंती है और बहुत से मामलों में छाती को बहुत चौड़ा करनेवाली, और उसके साथ-साथ आदमी को एक उँगली की तरह रास्ता दिखानेवाली कि जहाँ तक बन पड़े, तुम अपने हरेक काम को बिना पहले के कारण और बिना आगे के परिणाम को देखते हुए भी उचित बनाओ। हो सकता है, राम और कृष्ण और शिव, इन तीनों को लेकर कइयों के दिमाग में अलगाव की बातें भी उठती हों। मैं आपके सामने अभी एक विचार रख रहा हूं। जरूरी नहीं है कि इसको आप मान ही लें। हरेक चीज को मान लेने से ही दिमाग नहीें बढ़ा करता। उसको सुनाना, उसको समझने की कोशिश करना और फिर उसको छोड़ देने से भी , कर्इ दफे, दिमाग आगे बढ़ा करता हैं मैं खुद भी इस बात को पूरी तरह से अपनाता हूँ सो नहीं। एकाएक एक बार मैंने जब 1951-52 के आम चुनावों के नतीजों पर सोचना शुरू किया तो मेरे दिमाग में एक अजीब सी बात आयी। आपको याद होगा कि 1951-52 में हिंदुस्तान में आम चुनाव में एक इलाका ऐसा था कि जहाँ कम्युनिस्ट जीते थे, दूसरा इलाका ऐसा था जहां सोशलिस्ट जीते थे, तीसरा इलाका ऐसा था जहां धर्म के नाम पर कोर्इ न कोर्इ संस्था जीती थी। यों, सब जगह काँगे्रस जीती थी और सरकार उसी की रही। मैं इस वक्त सबसे बड़ी पार्टी की बात नहीं कह रहा। नंबर दो पार्टी की बात कह रहा हूं। सारे देश में नंबर वन पार्टी तो कांग्रेस रही। लेकिन हिंदुस्तान के इलाके कुछ ऐसे साफ से थे जहां पर ये तीनों पार्टियाँ जीतीं, अलग-अलग, यानी कहीं पर कम्युनिस्ट नंबर दो पर रहे,कहीं पर सोशलिस्ट नंबर दो पर रहे और कहीं पर ये जनसंघ, रामराज्य परिषद वगैरह मिला-जुला कर-इन सबको तो एक ही समझना चाहिए-नंबर दो रहे। मैं यह नहीं कहता कि जो कुछ मैं कह रहा हूँ वह सही है। मुमकिन है, इसके ऊपर अगर हिंदुस्तान के कालेज और विश्वविधालय जरा दिमाग कुछ चौड़ा करके देखते, कुछ तफरीही दिमाग से, क्योंकि तफरीह में भी कर्इ चीजें की जाती हैं, चाहे वे सही निकलें, न निकलें- तो हिंदुस्तान के नक्शे के तीन हिस्से बनाते। एक नक्शा वह, जहां राम सबसे ज्यादा चला हुआ है, दूसरा वह, जां कृष्ण सबसे ज्यादा चला हुआ है। तीसरा वह जहां शिव सबसे ज्यादा चला हुआ है। मैं जब राम, कृष्ण और शिव कहता हूं तो जाहिर है उनकी बीबियों को शामिल कर लेता हूं। उनके नौकरों को भी शामिल कर लेना चाहिए क्योंकि ऐसे भी इलाके हैं जहां हनुमान चलता है जिसके साफ माने हैं कि वहां राम चलता है; ऐसे इलाके हैं जहां काली और दुर्गा चलती हैं, इसके साफ माने हैं कि वहां शिव चलता है। हिंदुस्तान के इलाके हैं जहां पर इन तीनों ने अपना दिमाग साम्राज्य बना रखा है। दिमागी साम्राज्य भी रहा करता है। विचारों का, किंवदनितयों का। मोटी तौर पर शिव का इलाका वह इलाका था जहां कम्युनिस्ट नंबर दो हुए थे, मोटी तौर पर। उसी तरह कृष्ण का इलाका वह था जहां संघ और रामराज्य परिषद वाले नंबर दो हुए थे मोटी तौर पर राम का इलाका वह था जहां सोशलिस्ट नंबर दो हुए थे। मैं जानता हूं कि मैं खुद चाहूं तो इस विचार को एक मिनट में तोड़ सकता हूं, क्योंकि ऐसे बहुत से इलाके मिलेंगे जो जरा दुविधा के रहते हैं। किसी बड़े ख्याल को तोड़ने के लिए छोटे-छोटे अपवाद निकाल देना कौन सी बड़ी बात है। खैर, मोटी तौर पर मुझे ऐसे लगता है कि किंवदनितयों के इन तीन साम्राज्यों के मुताबिक ही हिंदुस्तान की जनता ने अपनी विरोधी शकितयों को चुनने की कोशिश की। आप कह सकते हैं कि अभी तो तुमने शिव की बड़ी तारीफ की थी। तुम्हारा यह शिव कैसा निकला। जहां पर शिव की किंवदंती का साम्राज्य है, वहां तो कम्युनिस्ट जीत गये। तो, फिर मुझे यह भी कहना पड़ता है कि जरूरी नहीं है कि इन किंवदनितयों के अच्छे ही असर पड़ते हैं, सब तरह के असर पड़ सकते हैं। शिव अगर नीलकण्ठ हैं और दुनिया के लिए अकेले जहर को अपने गले में बाँध सकते हैं तो उसके साथ-साथ-धतूरा खाने और पीने वाले भी हैं। शिव की दोनों तस्वीरें साथ-साथ जुड़ी हुर्इ हैं। मान लो, थोड़ी देर के लिए, वे धतूरा न भी खाते रहे हों। फिर से मंै बता दूँ कि ये सवाल सच्चार्इ और झूठार्इ के नहीं है। यह तो सिर्फ किसी आदमी के दिमाग का एक नक्शा है। हिंदुस्तान में करोड़ों लोग समझते हैं कि शिव धतूरा पीते हैं, शिव की पलटन में लूले-लंगड़े हैं, उसमें तो जानवर भी हैं, भूत-प्रेत भी हैं और सब तरह की बातें जुड़़ी हुर्इ हैं। लूले-लंगड़े, भूखे के मानी क्या हुए? गरीबों का आदमी। शिव का वह किस्सा भी आपको याद होगा कि शिव ने सती को मना किया था कि देखो तुम अपने बाप के यहां मत जाओ, क्योंकि उसने तुमको बुलाया नहीं। बहुत बढि़या किस्सा है यह। शिव ने कहा था कि जहां पर विरोध हो गया हो वहां पर बिना बुलाए मत जाओ, उसमें कल्याण नहीं हुआ करता है। पर फिर भी सती गयी। यह सही है कि उसके बाद शिव ने अपना, वक्ती तौर पर जैसा मैंने कहा, वही काम खुद अपने आप में उचित है-बहुत जबरदस्त गुस्सा दिखाया था। और उसकी पलटन कैसी थी! पटटपावके किशोर चंद्र शेखरे..... शिव की जो तस्वीरें अक्सर आँखों के सामने आती हैं वह किस तरह की हैंं जटा मेें चंद्रमा है, लेकिन लपटें ज्वाला को निगल रही हैं, धगद्धगद हो रहा है। सब तरह की, एक बिना सीमा की किंवदंती सामने खड़ी हो जाती है-शकित की, फैलाव की, सब तरह के लोगों को साथ समेटने की। इसी तरह, जाहिर है, कृष्ण और राम की किंवदनितयों के भी दूसरे स्वरूप हैं। राम चाहे जितने ही मर्यादा पुरूषोत्तम रहे हों लेकिन अगर उनके किस्से का मामला बैलगाड़ी पुरानी लीक तक ही फँस कर रह जाए तो फिर उनके उपासक कभी आगे बढ़ नहीं सकते। वे लकीर में बँधे रह जाएंगे। यह सही है कि राम के उपासक, शायद, बहुत बुरा काम नहीं करेंगे, क्योंकि बुरार्इ करने में भी वे मर्यादा से बंधे हैं, अगर अच्छार्इ करने में मर्यादा से बंधे हुए हैं तो। वे दोनों तरफ बंधे हुए हैंं शिव या कृष्ण में इस तरह बंधन का कोर्इ मामला नहीं है। कृष्ण में तो किसी भी नीति के बंधन का मामला नहीं है। और शिव में हर एक घटना खुद इतने महत्त्व की हो जाती है कि अपनी संपूर्ण शकित उसमें लगाकर, उस वक्त भी पूरी हद तक पहुंच सकते हैं या उससे बाहर, और उसके बाद जैसा कि दक्षिण वालों को तो यह कहीं ज्यादा मालूम होगा, उत्तर वालों के मुकाबले में। तांडव की भी कोर्इ बुनियाद होती है: एक गाढ़ निंद्रा-एकाएक आंखें खुलीं, लीला देखी, ली के साथ-साथ आँखें इधर-उधर मटकायीं और देख कर फिर आंखें बंद हो गयीं। फिर, मुमकिन है, एक दूसरी सतह पर आंख बंद हुर्इ और लीला हुर्इ और चली गयी, आंखें खुली और बंद हुर्इ। इससे एक तामस भी जुड़ा हुआ है। शांति सतोगुण का प्रतीक है। लेकिन अगर शांति कहीं बिगड़ना शुरू हो जाए तो फिर वह तामस का रूप ले लिया करती है। चुप बैठो, कुछ करो मत, धगघ्दगद होता रहे, धतूरा या धतूरे के प्रतीक की कोर्इ न कोर्इ चीज चलती रहे। और हमारे देश में अकर्मण्यता का तो बहुत जबरदस्त दार्शनिक आधार है, कर्म नहीं करने का। यह सभी है कि अलग-अलग मौकों पर हिंदुस्तान के इतिहास में अलग-अलग दार्शनिकों ने कर्म के सिद्धांत को अपने हिसाब से समझने की कोशिश की है। लेकिन बुनियादी तौर पर हिंदुस्तान का असली कर्म-सिद्धांत यही है कि जहां तक बन पड़े अपने आप को कर्म की फांसी से रिहा करो। यह सही है कि जो पुराने संचित कर्म हैं, उनसे तो छूट सकते नहीं, उनको तो भुगतना पड़ेगा, वे तो और नये कर्मों में आएँगे ही, लेकिन कोशिश यह करो कि नये कर्म न आएँ। हिंदुस्तान की सभ्यता का यह मूलभूत आधार कभी नहीं भूलना चाहिए, कि नये काम मत करो, पुराने कामों को भुगतना ही पड़ेगा और जब कामों की श्रृंखला अटूट जाएगी तभी मोक्ष मिलेगा। और शिव जैसी किंवदंती और इस तरह के विचार के मिल जाने के बाद, कर्इ बार तामस भी आ जाता है- उसके साथ-साथ एकाएक कोर्इ विस्फोट हो जाया करता है यानी जिसके आगे और पीछे कुछ है नहीं, नतीजा निकले या न निकले, क्योंकि, जहां हर एक कर्म अपने औचित्य को अपने आप में रखता है और न आगे है न पीछे है, वहां अगर किंवदंती कहीं बिगड़ गयी तो यह संभावना हो जाया करती है कि विस्फोट हो जाए। उसका आगे है न पीछे है और न ही कोर्इ तात्पर्य है। फिर, जब किंवदनितया बिगड़ती हैं, तो वे चाहे राम का इलाका हो, चाहे कृष्ण का इलाका हो, चाहे शिव का इलाका हो, बिगड़ती ही चली जाती हैं। मैं समझता हूं किसी हद तक, मैंने इन तीन किंवदतिंयों के स्वरूप आपके आमने रखे-बड़े स्वरूप। इनके किस्से किसी भी कौम के लिए मनोहर हैं और छाती को चौड़ा करने वाला है। जरूरी नहीं है कि कोर्इ उन किस्सों को माने। झूठे हैं तो इससे मुझे क्या मतलब? किस्से तो हैं न ।हम उपन्यास पढ़ते हैं कि नहीं पढ़ते। 'हितोपदेश और 'पंचतंत्र के गंगदत्त और प्रियदर्शन को याद रखते हैं। ये किस्से ऐसे हैं जिन्हें हर एक कौम, अपनी हँसी और अपने सपने को दिमाग की सतह पर, जो बहुत बुनियादी और गहरी सतह है, उस पर खोद कर रखा करती है। इन किस्सों के बारे में सावधान होकर रहना चाहिए। वह नीलकण्ठ शिव, जिसके हर एक काम का औचित्य उसके अंदर बना हुआ है। वह मर्यादा पुरूषोत्तम राम और वह योगेश्वर कृष्ण जो लीला करके चंद्रमा को ताना मारा करता है। ये सब किसी भी आदमी के दिल को बड़ा करने वाले किस्से हैं। पुराने देश ने इस बात का भी कुछ थोड़ा-बहुत इंतजाम किया है कि ये किंवदनितयाँ आपस में न टकराएँ। अगर वे कहीं टकराती हैं, शायद मुमकिन है भी, तो बोलचाल में कही लोगों में गरम बोलचाल हो गयी हो आपस में। ज्यादा से ज्यादा, मारपीट इस हद तक हुर्इ होगी कि लोगों ने मूत्र्तियाँ तोड़ी हों। मूत्र्तियाँ तो आज भी टूटती हैं, और पहले के जमाने में भी टूटी होंगी। इसमें आदमी को बहुत ज्यादा सोच-विचार नहीं करना चाहिए। यह सब तो लीला की तरह चलता रहता है, आँखें खोलो और बंद करो। कहीं पर मूर्ति टूट गयी या बन गयी, यह सब तो चला करता है। खैर। ये इंतजाम किये गये हैं कि तीनों आपस में टकराएँ नहीं। और सिर्फ जमुना और सरयू में ही एका करने की कोशिश नहीं की गयी। जब तुलसीदास गये जमुना के किनारे, तो उन्होंने सिर नवाने से इन्कार किया, यह जानते हुए कि सब एक ही माया है। लेकिन उन्होंने कहा कि भर्इ हाथ में धनुष बाण हाथ में आया, और सरयू एक हो गयीं। और, हमारे यहां के जो गाने बजाने वाले लोग हैं, उनसे बढ़कर इन मामलों में कोर्इ ओर नहीं हो सकते, जो राम को हमेशा जमुना के तट पर होली खिलवा कर छोड़ दिया करते हैं। जमुना के तट पर राम होली खेलें! अब कहो कि यह कौन सी बात है। सरयू के तट पर कृष्ण जा कर कौन सी अपनी रासलीला रचाएँ। ये सब चीजें हमारे लेखक कर दिया करते हैं। और लेखक कोर्इ मामूली आदमी थोड़े ही होते हैं, पर हर लेखकर नहीं। बड़ा लेखक बहुत बड़ा आदमी होता है। वह राम को भेज देता है जमुना किनारे और कृष्ण को भेज देता है सरयू किनारे फिर यह क्यों न संभव हो कि हिंदुस्तानी लोग भी ऐसी किंवदंती को अपनी आँखों के सामने लाएँ कि जिसमें शिव अपनी जटा में सिर्फ चंद्रमा ही नहीं, मुरली वाले कृष्ण को लिये हो, और मर्यादा पुरूषोत्तम राम के साथ तांडव कर रहे हों। लाने को ऐसी तस्वीरें लोग अपनी आँखों में ला ही सकते हैं, शायद आ जाए हिंदुस्तान में । मेरा बिल्कुल यह मतलब नहीं था कि कोर्इ उपदेश करूँ। उपदेश मैं कर भी क्या सकता हूँ। उपदेश करना बेवकूफी होगी। इसका सिर्फ एक मकसद था कि इन तीन किंवदनितयों के कुछ पहलुओं को आपके सामने लाना कि जिसमें कुछ किस्से- कहानियों को याद करके आपकी तबियत खुश हो, आप कुछ हँसें और कुछ सपने देखें। छ: महीने तक मरी हुर्इ पार्वती को अपने कंधों पर लाद कर ले चलना, यह भी एक अनोखा प्रेम है। लड़ार्इ के मैदान में दुनिया के शायद सबसे बड़े दर्शन को गीत के रूप में कह देना,यह भी एक अनोखा दर्शन है। यों, हिंदुस्तान में एक अजीब खूबी पायी गयी है कि अपने दर्शन को उसने गीत के रूप में कहा। और कौमों ने भी इसकी कोशिश की, लेकिन जिस किसी सबब से ही, उतनी सफलता नहीं मिली। उसी तरह से, राम ने भी अपनी ताकत को मर्यादा के अंदर रख कर अपना काम किया। जब रावण मरा था तो राम ने लक्ष्मण को रावण से राजनीति सीखने के लिए कहा कि जाओ, सीख आओ। पहले नहीं भेजा था। हर एक चीज का अपना वक्त होता है। कर्इ लोग कहते हैं कि राम बडा चतुर था। हो सकता है कि वह चतुर रहा हो। लक्ष्मण और परशुराम के संवाद में अक्सर ऐसा मालूम होता है कि जैसे बड़े भार्इ मजे में उसका रहे हों छोटे भार्इ को, कि तुम ताना मारो मैं तो हूँ ही, अगर मामला बिगडे़गा तो बचा ही लूंगा। तुम जरा मामला बढाते रहो। उसी तरह से, शूर्पणखा के मामले में, मालूम पड़ता है कि बड़े भार्इ साहब छोटे भार्इ साहब को अगर उकसा नहीं रहे हैं तो कम से कम मजा तो जरूर ले रहे हैं। आप देखते होगे कि जिंदगी में भी, जब कभी किसी दल के दो-तीन लोग होते हैं तो वे आपस में, चाहे पहले बातचीत हुर्इ हो या न हुर्इ हो, एक ऐसा इंतजाम सा कर लिया करते हैं कि एक तो दुश्मन को जरा शांत करेगा और अपने आदमी को जरा डाँटेगा-डपटेगा, तब दूसरा जरा गुस्से में बोलेगा, और फिर दोनों मिल कर उसके ऊपर हावी हो जाएंगे। खैर। राम ने लक्ष्मण को कभी भी रावण के पास लड़ार्इ के दौरान में नहीं भेजा जब रावण मर गया, तब भेजा। लक्ष्मण लौट कर आया, बोला-रावण तो कुछ बोलने को ही तैयार नहीं। तब राम ने उससे पूछा-तुमने किया क्या था? लक्ष्मण ने कहा, मैं वहाँ गया और मैंने रावण लेटा पड़ा था, मर रहा था और मैं उसके सिर की बगल में खड़े हुए थे? लक्ष्मण ने कहा कि रावण लेटा पड़ा था, मर रहा था और मैं उसके सिर की बगल में खड़ा हुआ। तो राम बोले-इस तरह से सीखा करते हो, जाओ, पैर के पास खड़े रहो, फिर सवाल पूछो और तब जवाब माँगो। लक्ष्मण फिर गया, पैर के पास खड़ा रहा तो उसे जवाब मिला। ऐसे बढि़या-बढि़या किस्से हैंं। छोटा सा किस्सा है कि दुश्मन है, बहुत बड़ी लड़ार्इ लड़ गयी और जब दुश्मन मर गया तब उसके पास अपना आदमी जाता है; पहले नहीं। मुमकिन है, मेरे किस्से को मेरे ही खिलाफ कुछ लोग इस्तेमाल कर दें और कहें कि तुम इस किस्से को बता रहे हो, तुम्हें जाना चाहिए, लेकिन रावण मरे तब लक्ष्मण जाता है, मरने के पहले नहीं। और जाकर सिरहाने नहीं खड़ा होना चाहिए, पैताने खड़ा होना चाहिए। जब बैठो कहीं मेज पर तो देख कर बैठो कि बगल वाले को कोर्इ तकलीफ तो नहीं हो रही है। कहीं अपनी जगह से ज्यादा नहीं ले रहे हो वगैरह, वगैरह। खैर। यहाँ मुझे सिर्फ इतना ही बताना है कि इन किस्सों की एक-एक तफसील में, एक-एक संवाद में, एक-एक बात में मजा भरा हुआ है। जरूरी नहीं है कि इन किस्सों को आप सही समझें। जरूरी नहीं है कि आप उनको धर्म मानें। उनको आप सिर्फ उपन्यास की तरह लें, एक ऐसा उपन्यास जो दस-बीस-पचास हजार आदमियों तक नहीं, बलिक जो करोड़ों लोगों तक पाँच हजार बरसों से चला आया है, और पता नहीं, कब तक चला जाता रहेगा। दुनिया के देशों में हिंदुस्तान किंवदनितयों के मामले में सबसे धनी है। हिंदुस्तान की किंवदनिदयों ने सदियों से लोगों के दिमाग पर निरंतर असर डाला है। इतिहास के बड़े लोगों के बारे में, चाहे वह बुद्ध हो या अशोक, देश के चौथार्इ से अधिक लोग अनभिज्ञ हैं। दस में एक को उनके काम के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी होगी और सौ में एक या हजार में एक उनके कर्म और विचार के बारे में कुछ विस्तार से जानता हो तो अचरज की बात होगी। देश के तीन सबसे बड़े पौराणिक नाम-राम, कृष्ण और शिव, सबको मालूम हैं। उनके काम के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी प्राय: सभी को, कम से कम दो में एक को तो होगी ही। उनके विचार व कर्म, या उन्होंने कौन से शब्द कब कहे, उसे विस्तारपूर्वक दस में एक जानता होगा। भारतीय आत्मा के लिए तो बेशक और कम से कम अब तक के भारतीय इतिहास की आत्मा के लिए और देश के सांस्कृतिक इतिहास के लिए, यह अपेक्षाकृत निरर्थक बात है कि भारतीय पुराण के ये महान लोग धरती पर पैदा हुए भी या नहीं। राम और कृष्ण शायद इतिहास के व्यकित थे और शिव भी गंगा की धारा के लिए रास्ता बनाने वाले इंजीनियर रहे हों और साथ-साथ एक अद्वितीय प्रेमी भी। इनको इतिहास के परदे पर उतारने की कोशिश करना एक हास्यास्पद चीज होगी। संभावनाओं की साधारण कसौटी पर इनकी जीवन कहानी को कसना उचित नहीं। सत्य का इससे अधिक आभास क्या मिल सकता है कि पचास या शायद सौ शताबिदयों से भारत की हर पीढ़ी के दिमाग पर इनकी कहानी लिखी हुर्इ है। इनकी कहानियां लगातार दुहरायी गयी हैं। बड़े कवियों ने अपनी प्रतिभा से इनका परिष्कार किया है और निखारा है तथा लाखों करोड़ों लोगों के सुख और दु:ख इनमें घुले हुए हैं। किसी कौम की किंवदंती उसके दु:ख और सपने के साथ उसकी चाह, इच्छा और आकांक्षाओं की प्रतीक है, तथा साथ-साथ जीवन के तत्त्व, उदासीनता और स्थानीय व संसारी इतिहास की भी। राम और कृष्ण और शिव भारत की उदासी और साथ-साथ रंगीन सपने हैं। उनकी कहानियों में एकसूत्रता ढूंढना या उनके जीवन में अटूट नैतिकता का ताना-बाना बुनना या असंभव गलत लगने वाली चीजें अलग करना उनके जीवन का सब कुछ नष्ट करने जैसा होगा केवल तर्क बचेगा। हमें बिना हिचक के मान लेना चाहिए कि राम और कृष्ण और शिव कभी पैदा नहीं हुए, कम-से-कम उस रूप में जिसमें कहा जाता है। उनकी किंवदंतियां गलत और असंभव हैं। उनकी श्रृंखला भी कुछ मामले में बिखरी है जिसके फलस्वरूप कोर्इ तार्किक अर्थ नहीं निकाला जा सकता। लेकिन यह स्वीकारोकित बिल्कुल अनावश्यक है। भारतीय आत्मा के इतिहास के लिए ये तीन नाम सबसे सच्चे हैं और पूरे कारवां में महानतम हैं, इतने ऊँचे और इतने अपूर्व हैं कि दूसरों के मुकाबले में गलत और असंभव दीखते हैं। जैसे पत्थरों और धातुओं पर इतिहास लिखा मिलता है, वैसे ही इनकी कहानियां लोगों के दिमागों पर अंकित है जो मिटार्इ नहीं जा सकती। भारत की पहाडियों में देवी देवताओं का निवास माना जाता है जिन्होंने कभी-कभी मनुष्य रूप में धरती पर आकर बड़ी नदियों के सांपों को मारा है या पालतू बनाया है। और भक्त गिलहरियों ने समुद्र बाँधा है। रेगिस्तान इलाकें के दैवी-विश्वास-यहूदी, र्इसार्इ और इस्लाम से हर देवता मिट चुके हैं, सिवा एक के, जो ऊपर और पहुंच के बाहर है, तथा उनके पहाड़ मैदान और नदियाँ किंवदतिंयों से शून्य हैं। केवल पढ़े-लिखे लोग या पुरानी गाथाओं की जानकारी रखनेवाले लोग माउंट ओलिम्पस के देवताओं के बारे में जानते हैंं भारत में जंगलों पर अटूट विश्वास और चंद्रमा का जड़ी-बूटी, पहाड़, जल और जमीन के साथ हमेशा चलनेवाला खिलवाड़ देवताओं और उनके मानवीय रूपों को सजीव रखता है व इनमें निखार लाता है। किंवदनितयां कथा नहीं है। कथा शिक्षक होती है। कथा का कलाकृति होना या मनोरंजक होना उसका मुख्य गुण नहीं, उसका मुख्य काम तो सीख देना है। किंवदनितयां सीख दे सकती हैं, मनोरंजन भी कर सकती हैं, लेकिन इनका मुख्य काम दोनों में से एक भी नहीं है। कहानी मनोरंजन करती है। बालजाक और मोपांसा और ओ-हेनरी ने अपनी कहानियों द्वारा लोगों का इतना मनोरंजन करती है। बालजाक और मोपांसा और ओ-हेनरी ने अपनी कहानियों द्वारा लोगों का इतना मनोरंजन किया है कि उनकी कौमों के दस में से एक आदमी उनके बारे में अच्छी तरह जानता है। इससे उनके जीवन में बेशक गहरार्इ और बड़प्पन आता है। बड़ा उपन्यास भी मनोरंजन करता है। यधपि उसका असर उतना जाहिरा तो नहीं, लेकिन शायद गहरा अधिक होता है। किंवदंती असंख्य चमत्कारी कहानियों से भरे प्राय: अनंत उपन्यास की तरह है। इनसे अगर सीख मिलती है तो केवल अपरोक्ष रूप से। ये सूरज, पहाड़ या फल-फूल जैसी हैं और हमारे जीवन का प्रमुख अंश है। आम और सतालू हमारे शरीर-तंतु बनाते हैं। वे हमारे रक्त और मांस में घुले हैं। किंवदनितयां लोगों के शरीर-तन की अवयव हैं, ये उनके रक्त-मांस में घुली होती है। इन किंवदनितयों को महान लोगों के जीवन के पवित्र नमूने के रूप् में देखना एक हास्यास्पद मूखर्ता होगी। लोग अगर इनको अपने आचार-विचार के नमूने के रूप में देखेंगे तो राम-कृष्ण और शिव की प्रतिष्ठा को नीचे गिरावेंगे। वे पूरे ही भारत के तंतु और रक्त-मांस के हिस्से हैं । उनके संवाद और उकितयां उनके आचार और कर्म, उनके किसी खास मौके पर कहे थे, ये सब भारतीय लोगों की जानी पहचानी चीजें हैं। ये सचमुच एक भारतीय की आस्था और कसौटी हैं, न केवल सचेत दिमागी कोशिश के रूप में, बलिक उस रूप में भी जैसा रक्त की शुद्धता पर स्वस्थ या रूग्न होना या न होन निर्भर होता है। किंवदनितयाँ एक तरह से महाकाव्य और कथा, कहानी और उपन्यास, नाटक और कविता की मिली जुली उपज हैं। किंवदनितयों में अपरिमित शकित है और यह अपनी कौम के दिमाग का अंश बन जाती हैं। इन किंवदनितयों में अशिक्षित लोगों को भी सुसंस्कृत करने की ताकत होती है। लेकिन उनमें सड़ा देने की क्षमता भी होती है। थोड़ा अफसोस होता है कि ये किंवदनितयां बुनियाद में विश्ववादी होते हुए भी स्थानीय रंग में रंगी होती हैं। इससे लगभग वैसा ही अफसोस होता है, जैसा हर काल के, हर मनुष्य के एक साथ और एक स्थान पर न रहने से होता है। मनुष्य जाति को अलग-अलग जगहों पर बिखर कर रहना होता है और इन जगहों की नदियां और पहाड़, लाल या मोती देने वाले समुद्र अलग हैं। विश्ववाद की जीभ स्थानीय ही होगी। यह समस्या स्त्री-पुरूष और उनके बच्चों की शिक्षा के लिए बराबर बनी रहेगी। अगर विश्ववाणी से स्थानीय रंग दूर किया जाए तो इस प्रक्रिया में भावनाओं का चढ़ाव-उतार खतम हो जाएगा, उसका रक्त सूख जाएगा और वह एक पीले साये के समान रह जाएगी। पिता राइन-गंगा मैया और पुनीत अमेजन सब एक चीजें हैं, लेकिन उनकी कहानी अलग-अलग है। शब्द के मतलब कुछ और भी होते हैं, सिवाय उनके नाम या जिसके लिए उसका इस्तेमाल होेता है। इनका पूरा मतलब और मजा उस स्थान और उसके इतिहास से लगाता रिश्ता होने पर ही मिल सकता है। गंगा एक ऐसी नदी है जो पहाडि़यों और घाटियों में भटकती फिरती है, कल-कल निनाद करती है, लेकिन उसकी गति एक भारी भरकम शरीर वाली औरत के समान मंदगामिनी है। गंगा का नाम गम धातु से बना है, जिससे गम-गम संगीत बनता है, जिसकी ध्वनि सितार की थिरकन के समान मधुर है। भारतीय शिल्प-कला के लिए, घडि़याल पर गंगा और कछुए पर उसकी छोटी बहन जमुना, एक रूचिकर विषय है। यदि अनामी मूर्तियों को शामिल न किया जाए तो वे भारतीय महिलाओं के प्रस्तर रूप की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरियां हैं। गंगा और यमुना के बीच आदमी मंत्र-मुग्ध सा खड़ा रहा जाता है कि ये कितनी समान हैं, फिर भी कितनी अलग। उनमें से किसी एक को चुनना बहुत मुशिकल है। ऐसी स्थानीय आभा से विश्ववाणी निकलती हैं इनसे उबरने का एक रास्ता हो सकता है। दुनिया भर की कौमों की किंवदिनितयां और कहानियां इकटठा की जाएं, उसी खूबी और सच्चार्इ के साथ, और उनमें प्रयोजन या सीख डालने की कोशिश न की जाएं जो कि दुनिया का चक्कर लगाते हैं उनकी मनुष्य जाति के प्रति जिम्मेदारी होती है कि वे इनके बारे में जहां जाएं, चर्चा करें। मिसाल के लिए हवार्इ द्वीप की मैडम पिलू की, जो अपनी उपसिथति से दो-तीन दिन तक आदमी को मुग्ध कर लेती है, जो छूने की कोशिश करने पर अन्तèर्यान हो जाती है, जो चाहती है कि उसके क्रेटर में सिगरेट का धुँआ फेंका जाए और जो बदले में गंधक का धुँआ फेंकती है। राम, कृष्ण और शिव भारत में पूर्णता के तीन महान स्वप्न हंै। सबका रास्ता अलग-अलग है। राम की पूर्णता मर्यादित व्यकितत्व में है, कृष्ण की उन्मुक्त या संपूर्ण व्यकितत्व में और शिव की असीमित व्यकितत्व में, लेकिन हर एक पूर्ण है। किसी एक का एक या दूसरे से अधिक या कम पूर्ण होने का कोर्इ सवाल नहीं उठता। पूर्णता में विभेद कैसे हो सकता है? पूर्णता में केवल गुण और किस्म का विभेद होता है। हर आदमी अपनी पसंद कर सकता है या अपने जीवन के किसी विशेष क्षण से संबंधित गुण या पूर्णता चुन सकता है। कुछ लोगों के लिए यह भी संभव है कि पूर्णता की तीनों किस्में साथ-साथ चलें-मर्यादित, उन्मुक्त और असीमित व्यकितत्व साथ-साथ रह सकते हैं। हिंदुस्तान के महान ऋषियों ने सचमुच इसकी कोशिश की है । वे शिव को राम के पास और कृष्ण को शिव के पास ले आये हैं और उन्होंने यमुना के तीर पर राम को होली खेलते बताया है। लोगों के पूर्णता के ये स्वप्न अलग किस्मों के होते हुए भी एक दूसरे में घुल-मिल गये हैं, लेकिन अपना रूप भी अक्षुण्ण बनाये रखा है। राम और कृष्ण, विष्णु के दो मनुष्य रूप हैं जिनका अवतार धरती पर धर्म का नाश और अधर्म के बढने पर होता है। राम धरती पर त्रेता में आये, जब धर्म का रूप इतना अधिक नष्ट नहीं हुआ था। वह आठ कलाओं से बने हुए थे और इसलिए एक संपूर्ण पुरूष थे। जब विष्णु ने कृष्ण के रूप में अवतार लिया तो स्वर्ग में उनका सिंहासन बिल्कुल सूना था। लेकिन जब राम के रूप में आये तो विष्णु अंशत: स्वर्ग में थे और अंशत: धरती पर। इन मर्यादित और उन्मुक्त पुरूषों के बारे में दो बहुमूल्य कहानियां कही जाती है। राम ने अपनी दृषिट केवल एक महिला तक सीमित रखी, उस निगाह से किसी अन्य महिला की ओर कभी नहीं देखा। यह महिला सीता थीं। उनकी कहानी बहुलांश राम की कहानी है, जिनके काम सीता की शादी, अपहरण और कैद-मुकित और धरती ( जिसकी वे पुत्री थीं) की गोद में समा जाने के चारों ओर चलते हैं। जब सीता का अपहरण हुआ तो राम व्याकुल थे। वे रो-रो कर कंकड़, पत्थर और पेड़ों से पूछते थे कि क्या उन्होंने सीता को देखा है। चंद्रमा उन पर हंसता था। विष्णु को हजारों वर्ष तक चंद्रमा का हंसना याद रहा होगा। जब बाद में वे धरती पर कृष्ण के रूप में आए तो उनकी प्रेमिकाएं असंख्य थीं । एक आधी रात को उन्होंने वृंदावन की सोलह हजार गोपियों के साथ रास-नृत्य किया। यह महत्त्व की बात नहीं कि नृत्य में साठ या छ: सौ गोपिकाएं थीं और रास-लीला में हर गोपी के साथ कृष्ण अलग-अलग नाचे। सब को थिरकाने वाला स्वयं अचल था। आनंद अटूट और अभेध था, उसमें तृष्णा नहीं थी। कृष्ण ने चंद्रमा को ताना दिया कि हंसों। चंद्रमा गंभीर था इन बहुमूल्य कहानियों में मर्यादित और उन्मुक्त व्यकितयों का रूप पूरा उभरा है और वे संपूर्ण हैं। सीता का अपहरण अपने में मनुष्य जाति की कहानियों की महानतम घटनाओं में से एक है। इसके बारे में छोटी-से-छोटी बात लिखी गयी है। यह मर्यादित, नियंत्रित और वैधानिक असितत्व की कहानी है। निर्वासन-काल के परिभ्रमण में एक मौके पर जब सीता अकेली छूट गयी थी तो राम के छोटे भार्इ लक्ष्मण ने एक घेरा खींच कर सीता को उसके बाहर पैर न रखने के लिए कहा। राम का दुश्मन रावण उस समय तक अशक्त था जब तक कि एक विनम्र भीखमंगे के छदमवेश में सीता को उसने उस घेरे के बाहर आने के लिए राजी नहीं कर लिया। मर्यादित पुरूष हमेशा नियमों के दायरे में रहता है। उन्मुक्त पुरूष नियम और कानून को तभी तक मानता है जब तक उसकी इच्छा होती है और प्रशासन में कठिनार्इ पैदा होते ही उनका उल्लंघन करता है। राम के मर्यादित व्यकितत्व के बारे में एक और बहुमूल्य कहानी है। उनके अधिकार के बारे में, जो नियम और कानून से बंधे थे, जिनका उल्लंघन उन्होंने कभी नहीं किया और जिनके पूर्ण पालन के कारण उनके जीवन में तीन या चार धब्बे भी आए। राम और सीता अयोध्या वापस आकर राजा और रानी की तरह रह रहे थे। एक धोबी ने सीता के बारे में शिकायत की। शिकायती केवल एक व्यकित था और शिकायत गंदी होने के साथ-साथ बेदम भी थी। लेकिन नियम था कि हर शिकायत के पीछे कोर्इ न कोर्इ दुख होता है और उसकी उचित दवा या सजा होना चाहिए। इस मामले में सीता का निर्वासन ही एकमात्र इलाज था। नियम अविवेकपूर्ण था, सजा क्रूर थी और पूरी घटना एक कलंक थी जिसने राम को जीवन के शेष दिनों में दुखी बनाया। लेकिन उन्होंने नियम का पालन किया, उसे बदला नहीं। वे पूर्ण मर्यादा पुरूष थे। नियम और कानून से बंधे हुए। और अपने बेदाग जीवन में धब्बे लगने पर भी उसका पालन किया। मर्यादा-पुरूष होते हुए भी एक दूसरा रास्ता उनके लिए खुला था। सिंहासन त्याग कर वे सीता के साथ फिर प्रवास कर सकते थे शायद उन्होंने यह सुझाव रखा भी हो, लेकिन उनकी प्रजा अनिच्छुक थी। उन्हें अपने आग्रह पर कायम रहना चाहिए था। प्रजा शायद नियम में ढिलार्इ करती या उसे खत्म कर देती लेकिन कोर्इ मर्यादित पुरूष नियमों का खत्म किया जाना पसंद नहीं करेगा, जो विशेषकाल में या किसी संकट से छुटकारा पाने के लिए किया जाता है। विशेषकर जब स्वयं उस व्यकित का उससे कुछ न कुछ संबंध हो । इतिहास और किंवदन्ती दोनों में अटकलबाजियां या क्या हुआ होता, इस सोच में समय नष्ट करना निरर्थक और नीरस है। राम ने क्या किया था, क्या कर सकते थे, यह एक मामूली अटकलबाजी है, इस बात की अपेक्षा कि उन्होंने नियम का यथावत पालन किया जो मर्यादित पुरूष की एक बड़ी निशानी है। आजकल व्यकित- नेतृत्व और सामूहिक नेतृत्व दोनों बुनियादी तौर पर उन्मुक्त व्यकितत्व के वर्ग के हो सकते हैं, जो नियम कानून नहीं मानते। सारा फर्क इसमें पड़ता है कि एक व्यकित या नौ या पंद्रह व्यकितयों का समूह अपने अधिकार के चारों ओर खीचें गये नियम के दायरे में रहता है या नहीं । एक व्यकित की अपेक्षा नौ व्यकितयों के समूह के लिए मर्यादा तोड़ना अधिक कठिन होता है लेकिन जीवन एक निरंतर चाल है और हर तरह की परस्पर विरोधी शकितयों की बदलती मात्रा के धुंधलकों में चलता रहता है। इस क्रम में व्यकित और समूह की उन्मुक्तता में बराबर अदला-बदली चल रही है। लेकिन एक बड़ी अदला-बदली भी चलती रही है जिसके चौखटे में व्यकित और समूह का आगे पीछे होना लगा रहता है और वह मर्यादित और उन्मुक्त पुरूष के बीच अदला बदली। राम मर्यादित पुरूष थे, जैसे कि वास्तविक वैधानिक प्रजातंत्र। कृष्ण एक उनमुक्त पुरूष थे। लगभग वैसे ही जैसे नेताओं की उच्चस्तरीय समिति जो अपनी बु द्धि से हर नियम का अतिक्रमण करती है। यह एक उन्मुक्त समूह है। इन दो सवालों में, कि व्यकित या समूह के पास शकित है या कि अधिकार, एक सीमा और दायरे में या खुला और छूट वाला है, दूसरा सवाल अधिक महत्वपूर्ण है। क्या अधिकार नियम और कानून के ऊपर चल सकता है। जब इस बड़े सवाल का हल मिल जाएगा तब छोटा सवाल उठेगा कि मर्यादित अधिकारी व्यकित है या समूह। बेशक सर्वोतम अधिकारी मर्यादित समूह है। राम मर्यादा पुरूष थे ऐसा रहना उन्होंने जान-बूझ कर और चेतन रूप से चुना था, बेशक नियम और कानून आदेश पालन के लिए एक कसौटी थे। लेकिन यह बाहरी दबाव निरर्थक हो जाता यदि उसके साथ-साथ अंदरूनी पे्ररणा न होती। विधान के बाहरी नियंत्रण और मन की अंदरूनी मर्यादा एक दूसरे को पुष्ट और मजबूत करते हैं। किसी भी प्रेरक का प्राथमिकता का तर्क देना निरर्थक होगा। किसी मर्यादित पुरूष के लिए विधान की बाहरी जंजीरें मन की अंदरूनी प्रेरणा का दूसरा नाम होगा। मर्यादित पुरूष का काम दोनों में मेल-जोल और समानान्तर का निर्णय करना है। मर्यादाएँ बाहरी नियंत्रण तो हैं ही, लेकिन अंदरूनी सीमाओं को भी छूती हैं। मर्यादित नेतृत्व वास्तव में नियंत्रित नेतृत्व है, लेकिन साथ-साथ वह मन के क्षेत्र में भी पहुंचता है। राम सचमुच एक नियंत्रित व्यकित थे, लेकिन उनका केवल इतना ही वर्णन करना गलत होगा। क्योंकि वे साथ-साथ मर्यादित पुरूष थे और नियम के दायरे में चलते थे। रावण के आखिरी क्षणों के बारे में एक कहानी कही जाती है। अपने जमाने का निस्संदेह वह सर्वश्रेष्ठ विद्वान था। हलांकि उसने अपनी विधा का गलत प्रयोग किया, फिर भी बुरे उधेश्य परे रख कर मनुष्य जाति के लिए उस विधा का संचय आवश्यक था। इसलिए राम ने लक्ष्मण को रामण के पास अंतिम शिक्षा मांगने के लिए भेजा। रावण मौन रहा। लक्ष्मण वापस आए। उन्होंने अपने भार्इ से असफलता का बयान किया और इसे रावण का सिरहाने खड़े थे। लक्ष्मण पुन: भेजे गये कि रावण के पैताने खड़े होकर निवेदन करें। फिर रावण ने राजनीति की शिक्षा दी। शिष्टाचार की यह सुंदर कहानी अद्वितीय और अब तक की कहानियों में सर्वश्रेष्ठ है। शिष्टाचार निश्चय ही उतना महत्वपूर्ण है जितनी नैतिकता। क्योंकि व्यकित कैसे खाता है या चलता है, या उठता बैठता है या कैसा दीख पड़ता है, कैसे कपड़े पहनता है, अपने लोगों से कैसे बातें करता है या उनके साथ कैसे रहता है, दूसरों की सुविधा का हमेशा ख्याल रखता है या नहीं, या हर प्राणी से कैसे बरताव करता है, यह शिष्टाचार का सवाल जरूर है, लेकिन किसी दूसरी चीज से कम महत्वपूर्ण नहीं। कृष्ण शिष्टाचार के उतने बड़े नमूने थे जितना कोर्इ मर्यादित पुरूष हो सकता है। उन्होंने सदव्यवहारी पुरूष या सिथतप्रज्ञ व्यकित की परिभाषा दी है। ऐसा व्यकित अपने ऊपर वैसा नियंत्रण रखता है जैसे कछुआ अपने शरीर पर नियंत्रण के कारण जब चाहे अपने अंगों को समेट सकता है। असावधानी में कोर्इ हरकत नहीं हो सकती। अन्य क्षेत्रों में चाहे जो भी भेद हो, लेकिन शिष्टाचार के क्षेत्र में सचमुच अपने निखरे रूप में उन्मुक्त पुरूष होता है। जो भी हो, मरणासन्न और श्रेष्ठ विद्वान के साथ शिष्टाचार की श्रेष्ठतम कहानी के रचयिता राम हैं। राम अक्सर श्रोता रहते थे न केवल उस व्यकित के साथ जिससे वे बातचीत करते थे, जैसा बड़ा आदमी करता है, बलिक दूसरे लोगों की बातचीत के समय भी। एक बार तो परशुराम ने उन पर आरोप लगाया कि वह अपने छोटे भार्इ को बेरोक और बढ़-चढ़ कर बात करने देने के लिए जान-बूझ कर चुप लगाए थे। यह आरोप थोड़ा सही भी है। अपने लोगों और उनके दुश्मनों के बीच होनेवाले वाद-विवाद में वे प्राय: एक दिलचस्पी लेनेवाले श्रोता के रूप में रहते थे। इसका परिणाम कभी-कभी बहुत भíा और दोषपूर्ण भी हो जाता था, जैसा लक्ष्मण और रावण की बहन शूर्पणखा के बीच हुआ। ऐसे मौकों पर राम ढृढ़ पुरूष की तरह शांत और निष्पक्ष दीखते थे। कभी-कभी अपने लोगों की अति को रोकते थे और अकसर उनकी ओर से या उन्हें बढ़ावा देते हुए एकाध शब्द बोल देते थे। यह एक चतुर नीति भी कही जा सकती है, लेकिन निश्चय ही यह मर्यादित व्यकित की भी निशानी है जो अपनी बारी आए बिना नहीं बोलता और परिसिथति के अनुसार दूसरों को बातचीत का अधिक से अधिक मौका देता है। कृष्ण बहुत वाचाल थे वे सुनते भी थे। लेकिन वे सुनते इसलिए थे कि वे और दिलचस्प बात कर सकें। उनके रास्ते पर चलने वालों को उनके शब्द आज भी जादू जैसे खींचते हैं। राम चुप्पी का जादू जानते थे, दूसरों को बोलने देते थे, तब तक कि उनके लिए जरूरी नहीं हो जाता था कि बात या काम के द्वारा हस्तक्षेप करें। राम मर्यादा-पुरूष थे इसलिए अपनी चुप्पी और वाणी दोनों के लिए समान रूप से याद किये जाते हैं। राम का जीवन बिना हड़पे हुए फैलने की एक कहानी है। उनका निर्वासन देश को एक शकितकेंद्र के अंदर बांधने का एक मौका था। इसके पहले प्रभुत्व के दो प्रतिस्पर्धी केंद्र थे। अयोध्या और लंका। अपने प्रवास में राम अयोध्या से दूर लंका की ओर गये। रास्ते में अपने राज्य और राजधानियाँ पड़ीं जो एक अथवा दूसरे केंद्र के मातहत थींं। मर्यादित पुरूष की नीति-निपुणता की सबसे अच्छी अभिव्यकित तब हुर्इ जब राम ने रावण के राज्यों में एक बड़े राज्य को जीता। उसका राजा बालि था। बालि से उसके भार्इ सुग्रीव और उसके महान सेनापति हनुमान दोनों अप्रसन्न थे। वे रावण के मेल-जोल से बाहर निकल कर राम की मित्रता और सेवा में आना चाहते थे। आगे चल कर हनुमान राम के अनन्य भक्त हुए। यहाँ तक कि एक बार उन्होंने अपना âदय चीर कर दिखाया कि वहां राम के सिवा और कोर्इ भी नहीं। राम ने पहली जीत को शालीनता और मर्यादित पुरूष की तरह निभाया। राज्य हड़पा नहीं जैसे का तैसा रहने दिया। वहां के ऊँचे या छोटे पदों पर बाहरी लोग नहीं बैठाये गये। कुल इतना ही हुआ कि एक द्वन्द्व में बालि की मृत्यु के बाद सुग्रीव राजा बनाए गये। बालि की मृत्यु भी राम के जीवन के कुछ धब्बों में एक है। राम एक पेड़ के पीछे छिपे खड़े थे और जब उनके मित्र सुग्रीव की हालत खराब हुर्इ तो छिपे तौर पर उन्होंने बालि पर वाण चलाया । यह कानून का उल्लंघन था। कोर्इ संसारी और मर्यादा-पुरूष ऐसा कभी नहीं करता । लेकिन राम कह सकते थे कि उनके सामने मजबूरी थी। प्रशा के फ्रेडरिक महान की तरह, जो बहुत सफार्इ के साथ व्यकित और राज्य की नैतिकता में भेद करते थे और इस भेद के आधार पर एक झूठ अथवा वादाखिलाफी के जरिए आम हत्याकांड या गुलामी रोकने के पक्षपाती थे, और इसीलिए उन्होंने ऐसे राजाओं को क्षमा किया जो संधियों के प्रति वफादार तो थे, लेकिन जीवन में जिन्होंने एक बार कभीं संधि तोड़ी। राम भी तर्क कर सकते थे कि उन्होंने एक व्यकित को, यधपि थोड़ा बहुत गलत तरीके से मार कर आम हत्याएं रोकी और उन्होंने अपने जीवन के केवल एक दुष्टतापूर्ण काम के जरिये एक समूचे राज्य को आच्छार्इ के रास्ते पर लगाया और अपने सिवाए किसी ओर क्रम में विघ्न नहीं डाला। स्वाभाविक था कि सुग्रीव अच्छार्इ के मेल-जोल में आए और लंका विजय करने के लिए बाद में अपनी सारी सेना आदि दिया। यह सही है कि यह सब कुछ बालि की मृत्यु से हासिल हुआ। राज्य पूर्ण रूप से स्वतंत्र रहा और राम से दोस्ती संभवत: वहां के नागरिकों की स्वतंत्र इच्छा से की गयी। फिर भी तबीयत यह होती है कि कोर्इ मर्यादा-पुरूष, छोटा या बड़ा, नियम न तोड़े, अपने जीवन में एक बार भी नहीं। बड़े और अच्छे शासन के लिए राम की बिना हड़पे हुए फैलाव की कहानी में, बिना साम्राज्यशाही के एकीकरण, और राजनीति की भाग-दौड़ में मर्यादित रूप से काम करने आदि के साथ-साथ दुश्मन के खेमे में अच्छे दोस्तों की खोज चलती रही। उन्होंने लंका में इस क्रम को दोहराया। रावण के छोटे भार्इ विभीषण राम के दोस्त बने। लेकिन किषिकन्धा की कहानी दोहरायी नहीं जा सकी। लंका में काम कठिन था। घनघोर युद्ध हुआ, और बहुत से लोग मारे गये। आगे चलकर विभीषण राजा बना और उसने रावण की पत्नी मंदोदरी को अपनी रानी बनाया। लंका में भी अच्छार्इ का राज्य स्थापित हुआ। आज तक भी विभीषण का नाम जासूस, द्रोही, पंचमांगी, और देश अथवा दल से गíारी करने वाले का दूसरा रूप माना जाता है। विशेष कर राम के शकित-केंद्र अवध के चारों ओर। यह एक प्रशंसनीय और दिशाबोधकर बात है कि कोर्इ कवि विभीषण के दोष को नहीं भूल सका। मर्यादा पुरूषोत्तम राम अपने मित्र को आम लोगों की नजर में स्वीकार्य बनाने का चमत्कार नहीं कर सके। यह शायद मर्यादा-पुरूष की निशानी हो कि अच्छार्इ जीती तो जरूर लेकिन एक ऐसे व्यकित के जरिए जीती जिसने द्रोह भी किया और इसलिए उसके नाम पर गíारी का दाग बराबर लगा रहे। कृष्ण संपूर्ण पुरूष थे उनके चेहरे पर मुस्कान और आनंद की छाप बराबर बनी रही और खराब से खराब हालत में भी उनकी आँखें मुस्काराती रहीं। चाहे दु:ख कितना ही बड़ा क्यों न हो, कोर्इ भी र्इमानदार आदमी वयस्क होने के बाद अपने पूरे जीवन में एक या दो बार से अधिक नहीं रोता। राम अपने पूरे वयस्क जीवन में दो या शायद एक बार रोये। राम और कृष्ण के देश में ऐसे लोगों की भरमार है जिनकी आँखों में बराबर आँसू डबडबाये रहते है और अज्ञानी लोग उन्हें बहुत ही भावुक आदमी मान बैठते हैं। एक हद तक इसमें कृष्ण का दोष है। वे कभी नहीं रोये। लेकिन लाखों को आज तक रूलाते रहे हैं। जब वे जिंदा थे, वृंदावन की गोपियाँ इतनी दु:खी थीं कि आज तक गीत गाये जाते हैं: निशि दिन बरसत नैन हमारे, कंचुकि पट सूखत नहि कबहुँ, उर बिच बहत पनारे। उनके रूदन में कामना की ललक भी झलकती है, लेकिन साथ ही साथ इतना संपूर्ण आत्मसमर्पण है कि 'स्व का कोर्इ असितत्व नहीं रह गया हो। कृष्ण एक महान प्रेमी थे, जिन्हें अदभूत आत्मसमर्पण मिलता रहा और आज तक लाखों स्त्री-पुरूष और स्त्री वेश में पुरूष, जो अपने प्रेमी को रिझाने के लिए सित्रयों जैसा व्यवहार करते हैं, उनके नाम पर आँसू बहाते हैं और उनमें लीन होते हैं। यह अनुभव कभी-कभी राजनीति में आता है और नपुंसकता के साथ-साथ फरेब शुरू हो जाता है। जन्म से मृत्यु तक कृष्ण असाधारण, असंभव और अपूर्व थे। उनका जन्म अपने मामा की कैद में हुआ, जहां उनके माता व पिता, जो एक मुखिया थे, बंद थे उनसे पहले जन्में भार्इ और बहन पैदा होते ही मार डाले गये थे। एक झोली में छिपा कर वे कैद से बाहर ले जाये गये। उन्हें जमुना के पार ले जाकर सुरक्षित स्थान में रखना था। गहरार्इ ने गहरार्इ को खींचा, जमुना बढ़ी और जैसे-जैसे उनके पिता ने झोली ऊपर उठार्इ, जमुना बढ़ती गयी, जब तक कि कृष्ण ने अपने चरण कमल से नदी को छू नहीं लिया। कर्इ दशकों के बाद उन्होंने अपना काम पूरा किया। उनके सभी परिचित मित्र या तो मारे गये या बिखर गये। कुछ हिमालय और स्वर्ग की ओर महाप्रयाण कर चुके थे। उनके कुनबे की औरतें डाकुओं द्वारा भगायी जा रही थी। कृष्ण द्वारिका का रास्ता अकेले तय कर रहे थे विश्राम करने वह थोड़ी देर के लिए एक पेड़ की छाँह में रूके। एक शिकारी ने उनके पैर को हिरन समझ कर बाण चलायी और कृष्ण का अंत हो गया। उन्होंने उस क्षण क्या किया? क्या उनकी अंतिम दृषिट करूणामयी मुस्कान के साथ हाथ में बाँसुरी लेकर ही संतुष्ट रहे? उनके दिमाग में क्या-क्या विचार आए? जीवन के खेल जो बड़े सुखमय, यधपि केवल लीला-मात्र थे, या स्वर्ग से देवताओं की पुकार जो अपने विष्णु के बना अभाव महसूस कर रहे थे। कृष्ण चोर, झूठे, मक्कार और खूनी थे। और वे एक पाप के बाद दूसरे पाप बिना रत्ती भर हिचक के करते थे। उन्होंने अपनी पोषक मां का मक्खन चुराने से लेकर दूसरे की बीबी चुराने तक का काम किया। उन्होंने महाभारत के समय एक ऐसे आदमी से आधा झूठ बुलवाया जो अपने जीवन में कभी झूठ नहीं बोला था। उनके अपने झूठ अनेक हैंं उन्होंने सूर्य को छिपा कर नकली सूर्यास्त किया ताकि उस गोधूलि में एक बड़ा शत्रु मारा जा सके। उसके बाद फिर सूरज निकला। वीर भीष्म पितामह के सामने उन्होंने नपुंसक शिखंडी को खड़ा कर दिया ताकि वे बाण न चला सकें। और खुद सुरक्षित आड़ में रहे। उन्होंने अपने मित्र की मदद स्वयं अपनी बहन को भगाने में की। लड़ार्इ के समय पाप और अनुचित काम के सिलसिले में कर्ण का रथ एक उदाहरण है। निश्चय ही कर्ण अपने समय में सेनाओं के बीच सबसे उदार आदमी था, शायद युद्धकौशल में भी सबसे निपुण था, और अकेले अजर्ुन को परास्त कर देता। उसका रथ युद्ध-क्षेत्र में फँस गया। कृष्ण ने अजर्ुन से वाण चलाने को कहा। कर्ण ने अनुचित व्यवहार की शिकायत की। इस समय महाभारत में एक अपूर्व वक्तृता हुर्इ जिसका कहीं कोर्इ जोड़ा नहीं, न पहले, न बाद मेंं कृष्ण ने कर्इ घटनाओं की याद दिलार्इ और हर घटना के कवितामय वर्णन के अंत में पूछा, 'तब तुम्हारा विवके कहाँ गया था? विवेक की इस धारा में कम से कम उस दौरान में विवेक और आलोचना का दिमाग मंद पड़ जाता है द्रौपदी का स्मरण हो आता है कि दुर्योधन के भरे दरबार में कैसे उसकी साड़ी उतारने की कोशिश की गयी। वहां कर्ण बैठे थे और भीष्म भी, लेकिन उन्होंने दुर्योधन का नमक खाया था यह कहा जाता है कि कुछ हद तक तो नमक खाने का जरूर असर होता है और नमक का हक अदा करने की जरूरत होती है कृष्ण ने साड़ी का छोर अनंत बना दिया, क्योंकि द्रौपदी ने उन्हें याद किया। उनके रिश्ते में कोमलता है, यधपि उसका वर्णन नहीं मिलता है। कृष्ण के भक्त उनके हर काम के दूसरे पहलू पेश करके सफार्इ करने की कोशिश करते हैं। उन्होंने मक्खन की चोरी अपने मित्रों में बाँटने के लिए की, उन्होंने चोरी अपनी मां की की, पहले तो खिझाने और फिर रिझाने के लिए। उन्होंने मक्खन बाल-लीला के रूप को दिखाने के लिए चुराया, ताकि आगे आनेवाली पीढि़यों के बच्चे उस आदर्श-स्वप्न में पलें। उन्हाेंने अपने लिए कुछ भी नहीं किया, या माना भी जाए तो केवल इस हद तक कि जिनके लिए उन्होंने सब कुछ किया वे उनके अंश भी थे। उन्होंने राधा को चुराया, न तो अपने लिए और न राधा की खुशी के लिए, बलिक इसलिए कि हर पीढ़ी की अनगिनत महिलाएं अपनी सीमाएं और बंधन तोड़ कर विश्व से रिश्ता जोड़ सकें। इस तरह की हर सफार्इ गैरजरूरी है। दुनिया के महानतम गीत भगवदगीता के रचयिता कृष्ण को कौन नहीं जानता। दुनिया में हिंदुस्तान एक अकेला देश है जहां दर्शन को संगीत के माध्यम से पेश किया गया है, जहाँ विचार बिना कहानी या कविता के रूप में परिवर्तित हुए गाये गये हैं। भारत के ऋषियों के अनुभव उपनिषदों में गाये गये हैं। कृष्ण ने उन्हें और शुद्ध रूप में निखारा। यधपि बाद के विद्वानों ने एक और दूसरे निखार के बीच विभेद करने की कितनी ही कोशिश की है। कृष्ण ने अपना विचार गीता के माध्यम से ध्वनित किया। उन्होंने आत्मा के गीत गाये। आत्मा को मानने वाले भी उनके शब्द चमत्कार में बह जाते हैं, जब वह आत्मा को अनश्वर जल और समीर की पहुँच के बाहर तथा शरीर बदले जाने वाले परिधान के रूप में वर्णन करते हैं। उन्होंने कर्म के गीत गाये और मनुष्य को, फल की अपेक्षा किये बिना और उसका माध्यम या करण बने बिना, निर्लिप्तता से कर्म में जुटे रहने के लिए कहा। उन्होंने समत्व में सुख और दु:ख, जीत या हार, गर्मी या सर्दी, लाभ या हानि और जीवन के अन्य उद्वेलन के बीच सिथत रहने के गीत गाये। हिंदुस्तान की भाषाएँ एक शब्द 'समत्वम के कारण बेजोड़ हैं, जिससे समता की भौतिक परिसिथतियों और आंतरिक समता दोनों का बोध होता है। इच्छा होती है कि कृष्ण ने इसका विस्तार से बयान किया होता। ये एक सिक्के के दो पहलु हैं-समता समाज में लागू हो और समता व्यकित का गुण हो, जो अनेक में एक देख सके। भारत का कौन बच्चा विचार और संगीत की जादुर्इ धुन में नहीें पला है, उनका औचित्य स्थापित करने की कोशिश करना उनके पूरे लालन-पालन की असलियत से इंकार करना है। एक मानी में कृष्ण आदमी को उदास करते हैंं उनकी हालत बिचारे âदय की तरह है जो बिना थके अपने लिए नहीं बलिक निरंतर दूसरे अंगों के लिए धड़कता रहता है। âदय क्यों धड़के या दूसरे अंगों की आवश्यकता पर क्यों मजबूती या साहस पैदा कर कृष्ण ने âदय की भी इच्छा पैदा की है। वे उस तरह के बन न सकें लेकिन इस प्रक्रिया में हत्या और छल करना सीख जाते हैं। राम और कृष्ण पर तुलनात्मक दृषिट डालने पर विचित्र बात देखने में आती है। कृष्ण हर मिनट में चमत्कार दिखाते थे। बाढ़ और सूर्यास्त आदि उनकी इच्छा के गुलाम थे। उन्होंने संभव और असंभव के बीच की रेखा को मिटा दिया था। राम ने कोर्इ चमत्कार नहीं किया। यहां तक कि भारत और लंका के बीच का पुल भी एक-एक पत्थर जोड़ कर बनाया। भले ही उसके पहले समुंद्र-पूजा की विधि करना और बाद में धमकी देना पड़ा। लेकिन दोनों के जीवन की संपूर्ण कृतियों की जाँच करने और लेखा मिलाने पर पता चलेगा कि राम ने अपूर्व चमत्कार किया और कृष्ण ने कुछ भी नहीं। एक महिला के साथ दो भाइयों ने अयोध्या और लंका के बीच 2000 मील की दूरी तय की। जब वे चले तो केवल तीन थे जिनमें दो लड़ार्इ और एक व्यवस्था कर सकते थे। जब वे लौटे, एक साम्राज्य बना चुके थे। कृष्ण ने सिवा शासक वंंश की एक शाखा से दूसरी शाखा को गíी दिलाने के और कोर्इ परिवर्तन नहीं किया। यह एक पहेली है कि कम से कम राजनीति के दायरे में मर्यादा पुरूष महत्वपूर्ण और सार्थक, और उन्मुक्त या संपूर्ण पुरूष छोटा और निरर्थक साबित हुआ। यह काल की पहेली के समान ही है। घटनाहीन जीवन में हर क्षण भार बन जाता है और बर्दाश्त के बाहर लंबा लगता है। लेकिन एक दशक या एक जीवन में उसका संकलित विचार करने से सहज और जल्दी बीता हुआ लगता है। उत्तेजना के जीवन में क्षण मोहक लगता है और समय इच्छा के विपरीत तेजी से बीतता लगता है। पर साल दो साल बाद पुनर्विचार करने पर भारी और धीरे-धीरे बीता हुआ लगता है। मर्यादा के सर्वोच्च पुरूष, मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने राजनीतिक चमत्कार हासिल किया। पूर्णता के देव कृष्ण ने अपनी कृतियों से विश्व को चकाचौंध किया, जीवन के नियम सिखाए, जो कि सी और ने नहीं किया था, लेकिन उनके संपूर्ण व्यकितत्व की राजनीतिक सफलता ठोस होने के बजाए बुलबुले जैसी है। गाँधी राम के महान वंशज थे आखिरी क्षण में उनकी जबान पर राम का नाम था। उन्होंने मर्यादा पुरूषोत्तम के ढाँचे में अपने जीवन को ढाला और देशवासियों का भी आहवान किया। लेकिन उनमें कृष्ण की एक बड़ी और प्रभावशाली छाप दीखती है। उनके पत्र और भाषण जब रोज या साप्ताहिक तौर पर सामने आते थे, तो एक सूत्रता में पिरोये लगते थे। लेकिन उनकी मृत्यु के बाद उन्हें पढ़ने पर विभिन्न परिसिथतियों में अर्थ और रूख परिर्वतन की नीति-कुशलता और चतुरार्इ का पता चलता है। द्वारिका ने मथुरा का बदला चुकाया। द्वारिका का पूत जमुना के किनारे मारा और जलाया गया। हजारों साल पहले जमुना ओर अभिमुख थे, जो अपने जीवन को अयोध्या के ढाँचे में ढालने में बहुलांश सफल भी हुए। फिर भी वह दोनों के विचित्र और बेजोड़ मिश्रण थे। राम और कृष्ण ने मानवीय जीवन बिताया। लेकिन शिव बिना जन्म और बिना अंत के हैं। र्इश्वर की तरह अनंत हैं, लेकिन र्इश्वर के विपरीत उनके जीवन की घटनाएँ समय-क्रम में चलती हैं। और विशेषताओं के साथ, इसलिए वे र्इश्वर से भी अधिक असीमित हैं। शायद केवल उनकी ही एकमात्र किंवदंती है जिसकी कोर्इ सीमा नहीं है। इस मामले में उनका मुकाबला कोर्इ और नहीं कर सकता। जब उन्होंंने प्रेम के देवता काम के ऊपर तृतीय नेत्र खोला और उसे राख कर दिया तब कामदेव की धर्म-पत्नी और प्रेम की देवी रति, रोती हुर्इ उनके पास गर्इ और अपने पति के पुनर्जीवन की याचना की। नि:संदेह कामदेव ने एक गंभीर अपराध किया था। क्योंकि उसने महादेव शिव को उद्विग्न करने की कोशिश की जो बिना नाम और रूप तथा तृष्णा के ही मन से ध्यानावसिथत होते हैं। कामदेव ने अपनी सीमा के बाहर प्रयास किया और उसका अंत हुआ। लेकिन हमेशा चहकने वाली रति पहली बार विधवा रूप में होने के कारण उदास दीख पड़ी। दुनिया का भाग्य अधर में लटका था। रति-क्रीड़ा अब के बाद बिना प्रेम के होने वाली थी। शिव माफ नहीं कर सकते थे। उन्होंने सजा उचित दी, लेकिन रति परेशान थी। दुनिया के भाग्य के ऊपर करूणा या रति की उदासी ने शिव को डिगा दिया। उन्होंने कामदेव को जीवन तो दिया लेकिन बिना शरीर के। तब से कामदेव निराकार है। बिना शरीर के काम हर जगह पहुँच कर प्रभाव डाल सकता है और घुल-मिल सकता है। ऐसा लगता है कि यह खेल शिव के ऊँचे पहाड़ी वासस्थान कैलाश पर हुआ होगा। मानसरोवर झील, जिसके पारदर्शी अथाह गहरार्इ और अपूर्व छवि वाले राक्षस ताल से लगा अजेय कैलाश, जहाँ बारहों महीने बर्फ जमी रहती है और अखण्ड शांति का साम्राज्य छाया रहता है, हिंदू कथाओं के अनुसार धरती का सबसे रमणीक स्थल और केंद्र-विंदु है। धर्म और राजनीति, र्इश्वर और राष्ट्र या कौम हर जमाने में और हर जगह मिल कर चलते हैं। हिंदुस्तान में यह अधिक होता है। शिव के सबसे बड़े कारनामों में एक उनका पार्वती की मृत्यु पर शोक प्रकट करना है। मृत पार्वती को अपने कंधे पर लाद कर वे देश भर में भटकते फिरे। पार्वती का अंग-अंग गिरता रहा, फिर भी शिव ने अंतिम अंग गिरने तक नहीं छोड़ा। किसी प्रेमी, देवता, असुर या किसी के भी साहचर्य निभाने की ऐसी पूर्ण और अनूठी कहानी नहीं मिलती। केवल इतना ही नहीं, शिव की यह कहानी हिंदुस्तान की अटूट और विलक्षण एकता की भी कहानी है। जहाँ पार्वती का एक अंग गिरा, वहाँ एक तीर्थस्थान बना। बनारस में मणिकर्णिका घाट पर मणि-कुंतल के साथ कान गिरा, जहाँ आज तक मृत व्यकितयों को जलाए जाने पर निशिचत रूप से मुकित मिलने का विश्वास किया जाता है। हिंदुस्तान के पूर्वी किनारे पर कामरूप में एक हिस्सा गिरा जिसका पवित्र आकर्षण सैकड़ों पीढि़यों तक चला आ रहा है, और आज भी देश के भीतरी हिस्सों में बूढ़ीं दादियां अपने बच्चों को पूरब की महिलाओं से बचने की चेतावनी देती है क्योंकि वे पुरूषों को मोह कर भेड़-बकरी बना देती हैं। सर्जक ब्रह्राा और पालक विष्णु में एक बार बड़ार्इ-छोटार्इ पर झगड़ा हुआ। वे संहारक शिव के पास फैसले के लिए गये। उन्होंने दोनों को अपने छोर का पता लगाने के लिए कहा, एक को अपने सर और दूसरे को पैर का, और कहा कि पता लगा कर पहले लौटने वाला विजेता माना जायेगा। यह खोज सदियों तक चलती रही और दोनों निराश लौटे। शिव ने दोनाेंं को अहंकार से बचने के लिए कहा। त्रिमूर्ति इस पर निर्णय कर खूब हंसे होंगे, और शायद दूसरे मौकों पर भी हंसते होंगे। विष्णु के बारे में यह बता देना जरूरी है, जैसा कर्इ दूसरी कहानियों से पता चलता है कि वह भी अनंत निद्रा और अनंत आकार के माने जाते हैं, जब तक शिव की लंबार्इ चौड़ार्इ अनंत में तय न कर उसकी परिभाषा न दी जाए। एक दूसरी कहानी उनके दो पुत्रों के बीच की है जो एक खूबसूरत औरत के लिए झगड़ रहे थे। इस बार भी इनाम उसको मिलने वाला था जो सारी दुनिया को पहले नाप लेगा। कार्तिकेय स्वास्थ्य और सौंदर्य की प्रतिमूर्ति थे और एक पल नष्ट किए बिना दौड़कर निकल पड़े। हाथी की सूंड वाले गणेश, लम्बोदर, बैठे सोचते रहे और बहुत देर तक मुंह बनाए बैठे रहे। कुछ देर में उनको एक रास्ता सूझा और उनकी आँखों में शरारत चमकी। गणेश उठे और धीमे-धीमे अपने पिता के चारों ओर घूमे और निर्णय उनके पक्ष में रहा। कथा के रूप में तो यह बिना सोचे और जल्दबाजी के बदले चिंतन, धीमे-धीमे सोच-विचार कर काम करने की सीख देती हैं लेकिन मूलरूप से यह शिव की कथा है जो असीम है और साथ-साथ सात पगों में नापी जा सकती है। निस्संदेह शरीर से भी शिव असीम हैं। हाथी की सूंड वाले गणेश का अपूर्व चरित्र है, पिता के हस्त कौशल के अलावा अपनी मंद, यधपि तीक्ष्ण बुद्धिमानी के कारण। जब वह छोटे थे, उनकी माता ने उन्हें स्नानागृह के दरवाजे पर देख-रेख करने और किसी को अंदर न आने के लिए कहा। प्रत्युत्पन्न क्रिया वाले शंकर उन्हें ढकेल कर अंदर जाने लगे, लेकिन आदेश से बंधे गणेश ने उन्हें रोका। पिता ने पुत्र का गला काट दिया। पार्वती को असीम वेदना हुर्इ। उस रास्ते जो पहला जीव निकला वह एक हाथी था। शिव ने हाथी का सिर उड़ा दिया और गणेश के धड़ पर रख दिया। उस जमाने से आज तक गहरी बुद्धिवाले, मनुष्य की बुद्धि के साथ गज की स्वामी भकित रखने वाले गणेश, हिंदू घरों में हर काम के शुरू में पूजे जाते हैं। उनकी पूजा से सफलता निशिचत हो जाती है। मुझे कभी-कभी विस्मय होता है कि क्या शिव ने इस मामले में अपने चरित्र के खिलाफ काम नहीं किया? क्या यह काम उचित था? हालांकि उन्होंने गणेश को पुनर्जीवित किया और इस तरह व्याकुल पार्वती को दु:ख से छुटकारा दिया। लेकिन उस हाथी के बच्चे की मां का क्या हाल हुआ होगा, जिसकी जान गयी? लेकिन सवाल का जवाब खुद सवाल में ही मिल जाता है। नये गणेश से हाथी और पुराने गणेश दोनों में से कोर्इ नहीं मरा। शाश्वत आनंद और बुद्धि का यह मेल कितना विचित्र है तथा हाथी और मनुष्य का मिश्रण कितना हास्यास्पद! शिव का एक दूसरा भी काम है। जिसका औचित्य साबित करना कठिन है। उन्होंने पार्वती के साथ नृत्य किया। एक-एक ताल पर पार्वती ने शिव को मात किया। तब उत्कर्ष आया। शिव ने एक थिरकन की और और अपना पैर ऊपर उठाया। पार्वती स्तब्ध और विस्मयचकित खड़ी रहीं और नारी की मर्यादा के खिलाफ भंगिमा नहीं दर्शा सकीं।अपने पति के इस अनुचित काम पर आश्चर्य प्रकट करती खड़ी रहीं। लेकिन जीवन का नृत्य ऐसे उतार-चढ़ाव से बनाता है जिसे दुनिया के नाक-भौं चढ़ाने वाले लोग अभद्र कहते हैंऔर जिससे नारी की मर्यादा बचाने की बात कहते है। पता नहीं शिव ने शकित की वन भंगिमा एक मुकाबले में, जिसमें वह कमजोर पड़ रहे थे, जीत हासिल करने के लिए प्रदर्शित की या सचमुच जीवन के नृत्य के चढ़ाव में कदम-कदम बढ़ाते हुए वे उद्वेलित हो उठे थे। शिव ने कोर्इ भी ऐसा काम नहीं किया जिसका औचित्य उस काम से ही न ठहराया जा सके। आदमी की जानकारी में वह इस तरह के अकेले प्राणी हैं जिनके हर काम का औचित्य अपने आप में था। किसी को भी उस काम के पहले कारण और न बाद में किसी काम का नतीजा ढूँढ़ने की आवश्यकता पड़ी और न औचित्य ढूँढ़ने की। जीवन कारण और कार्य की ऐसी लंबी श्रृंखला है कि देवता और मनुष्य दोनों को अपने कामों का औचित्य दूर तक जा कर ढूँढ़ना होता है। यह एक खतरनाक बात है। अनुचित झूठ को सच, गुलामी को आजादी और हत्या को जीवन करार दिया जाता है। इस तरह के दुष्टतापूर्ण तर्कों का एकमात्र इलाज है शिव का विचार, क्योंकि वह तात्कालिकता के सिद्धांत का प्रतीक है। उनका हर काम स्वयं में तात्कालिक औचित्य से भरा होता है और उसके लिए किसी पहले या बाद के काम को देखने की जरूरत नहीं होती है। असीम तात्कालिकता की इस महान किंवदंती ने बड़प्पन के रौ और स्वप्न दुनिया को दिये हैंं। जब देवों और असुरों ने समुद्र मथा तो अमृत के पहले विष निकला। किसी को यह विष पीना था। शिव ने उस देवासुर संग्राम में कोर्इ हिस्सा नहीं लिया और न तो समुद्र मंथन के समिमलित प्रयास में ही। लेकिन कहानी बढ़ाने के लिए वे विषपान कर गए। उन्होंने अपनी गर्दन में विष को रोक रखा और तब से वे नीलकंठ के नाम से जाने जाते हैं। दूसरा स्वप्न हर जमाने में हर जगह पूजने योग्य है। जब एक भक्त ने उनकी बगल में पार्वती की पूजा करने से इंकार किया तो शिव ने आधा पुरूष-आधा नारी, अद्र्धनारीश्वर रूप ग्रहण किया। मैंने आपादमस्तक इस रूप को अपने दिमाग में उतार पाने में दिक्कत महसूस की है, लेकिन उसमें बहुत आनंद मिलता है। मेरा इरादा इन किंवदनितयों के क्रमश: àास को दिखाने का नहीं है। शताबिदयों के बीच वे गिरावट की शिकार होती रही है। कभी-कभी ऐसा बीज जो समय पर निखरता है, व विपरीत हालतों में सड़ भी जाता है। राम के भक्त समय-समय पर पत्नी निर्वासक, कृष्ण के भक्त दूसरों की बीबियाँ चुरानेवाले, शिव के भक्त अघोरपंथी हुए हैंं। गिरावट और क्षतरूप की इस प्रक्रिया में मर्यादित पुरूष संकीर्ण हो जाता है। उन्मुक्त पुरूष दुराचारी हो जाता है, असीमित पुरूष प्रासांगिक और स्वरूपहीन हो जाता है। राम का गिरा हुआ रूप स्वरूपहीन व्यकितत्व बन जाता है। राम के दो असितत्व हो जाते हैं, मर्यादित और संकीर्ण कृष्ण के उन्मुक्त और क्षुद्र-प्रेमी, शिव के असीमित और प्रासंगिक। मैं कोर्इ इलाज सुझाने की धृष्ठता नहीं करूँगा और केवल इतना कहूँगा: भारतमाता, हमें शिव का मसितष्क दो, कृष्ण का âदय दो तथा राम का कर्म और वचन दो। हमें असीम मसितष्क और उमूक्त âदय के साथ-साथ जीवन की मर्यादा से रची।